Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा. गोवर्धन शर्मा : अपभ्रश का विकास : ११३ प्राकृत को देशी नाम दिया है और उसका प्राकृत-संभवतः शौरसेनी से भेद स्थापित किया है.' कोउहल ने 'लीलावई कहा' में महाराष्ट्री प्राकृत को ही देशी भाषा कहा है.२ इन उदाहरणों से ज्ञात होता है कि भाषा में रूप में देशी शब्द का यहां प्राकृत के लिए प्रयोग हुआ है, किन्तु परवर्ती कवियों ने अपभ्रंश को भी देशी कह कर पुकारा है. स्वयंभू ने अपनी रामायण-पउमचरिउ–को ग्रामीण भाषा में रचित बताया है. अपभ्रश के दूसरे एक महान् कवि पुष्पदन्त ने भी 'महापुराण' में अपनी काव्यभाषा को देसी के नाम से पुकारा है. एक सहस्र ईसवीं में कवि पद्मदेव ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पासणाहचरिउ' की भाषा को 'देसी सद्दत्थगाढ' से युक्त बताया.५ इन सब उल्लेखों से जान पड़ता है कि परवर्ती काल में अपभ्रश देशी भाषा कहलाने लगी थी. जब अपभ्रंश साहित्यिक सिंहासन पर आरूढ होकर रूढ़िगग्रस्त हो गई तो उसकी तुलना में अवहट्ट को भी देसी कहा जाने लगा. इसी प्रकार जनपदीय बोलियाँ भी देसी नाम से पुकारी जाने लगी. विद्यापति का उल्लेख हमारे कथन का समर्थन करता है. महाराष्ट्र के संत कवि ज्ञानेश्वर ने भी देसी शब्द का प्रयोग पुरानी मराठी के लिए किया है.८ इन निर्देशों से जान पड़ता है कि देसी शब्द का प्रयोग प्राकृत, अपभ्रश, अवहट्ट और जनपदीय बोलियों के लिए समय समय पर होता रहा है. वस्तुत: देशी विशेषण एक सापेक्षित शब्द है. प्राकृत से भी पहले पाली के लिए इस संज्ञा का प्रयोग किया जाता था. भगवान् बुद्ध ने अपना उपदेश देश भाषा में ही किया था और उसी भाषा में उन्हें सुरक्षित रखने का आदेश भी दिया था तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युग में सहित्यारूढ़ भाषा के समानान्तर कोई न कोई देशी भाषा रही है जो जनता के सामान्य समुदाय द्वारा प्रयुक्त होती रही है. उसे ही सदा देशी कहा जाता रहा है, अतः देशी का अर्थ केवल अपभ्रंश मानना अनुचित है. डाक्टर कीथ ने अपने ग्रंथ 'संस्कृत साहित्य का इतिहास' में पहले खंड में भाषाओं का विवेचन किया है. उन्होंने रुद्रट और दंडी का आश्रय लेकर यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि अपभ्रंश किसी रूप में कभी देशभाषा नहीं थी. वह आभीर, गुर्जर आदि विदेशी आक्रमणकारियों की भाषा थी और उन्हीं के साथ-साथ उसका प्रसार व उसकी प्रतिष्ठा हुई. अतः उसे मध्यकालीन प्राकृतों और आधुनिक आर्यभाषाओं की विचली कड़ी मानना ठीक नहीं हैं, यहाँ हम डाक्टर कीथ की मान्यता पर विचार करेंगे. उनकी यह धारणा कि अपभ्रंश मध्यकालीन प्राकृतों और आधुनिक आर्यभाषाओं के बीच की कड़ी नहीं है, आज कोई नहीं मानता. भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह मान्यता गलत है. रुद्रट का उल्लेख
१. कोउ हल-लीलावई कहा-सं० आ० ने० उपाध्ये द्वारा भूमिका में उद्धृत
पायय भासारइया मरहट्ठय देसीवयणणिवद्धा. २. कोउल-लीलावई कहा, गाथा १-३०
मणियं च पिययमाए रइयं मरहट्ट देसीभासाए. ३. (क) स्वयंभू-रामायण, हिन्दी काव्यधारा, पृ० २६ से उद्धृत.
छुडु होसि सुहासियवयणई. गामेल्लभास परिहरगणाई. (ख) वही 'देसी भासा उभयतडुज्जल'. ४. पुष्पदन्त-महापुराण, १-८-१० 'ण विणयामि देसी'. ५. पद्मदेवः पासणाहचरिउ--वापरणुदेखि सदस्थगाड, छदालंकार बिसाल पौढ. ६. देसिल बयना सबजन मिठा. ७. ज्ञानेश्वरः ज्ञानेश्वरी-अध्याय १८.
अम्हो प्राकृते देशीकारे बन्धे गीता. ८. डा० कोलतेः विक्रम स्मृति ग्रन्थ, पृ०४७६. 8. नामवरसिंह: हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग-पृ०८. १०. कीधः हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर, पृ० ३३.
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