Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय विद्यमान थे और बारहवीं शताब्दी का मध्य भाग अपभ्रंश के अस्त और आधुनिक भाषाओं के उदय का काल यथाकथंचित् माना जा सकता है.२ ।। देवेन्द्रकुमार के अनुसार अपभ्रंश का प्रथम परिचय तीसरी सदी ईस्वी से मिलने लगता है. किन्तु वह साहित्यारूढ छठी सदी में हो सकी. बारहवीं सदी तक उसका समृद्धि-युग रहा. महाकवि कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' नाटक के चतुर्थ अंक में अपभ्रंश के दोहे मिलते हैं. इनकी प्रामाणिकता के विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं, एस. पी. पंडित, ज्यूल ब्लाक तथा हर्मन याकोबी आदि विद्वान् इन्हें प्रक्षिप्त मानते हैं, परन्तु आ० ने० उपाध्ये एवं डा० तगारे इनको प्रामाणिक मानते हैं. सुनीतिकुमार चाटुा इनके प्रक्षिप्त होने पर भी अपभ्रंश का काल ४०० ई० से १००० ई० तक मानते है इस विवाद से बचते हुये डा० धीरेन्द्र वर्मा, डा० उदयनारायण तिवारी, डा० हजारीप्रसाद आदि" विद्वान् इसका प्रारंभ पांचवीं अथवा छठी शती से मानते हैं. गुलेरी प्रारंभ के चक्कर में न पड़ विक्रम की सातवीं शताब्दी से ग्यारहीं शताब्दी तक अपभ्रंश की प्रधानता मानते हैं.१२ राहुलजी छठी शती को ही प्राकृत और अपभ्रंश की सीमारेखा मानने के पक्ष में हैं.१३ इन विभिन्न धारणाओं के आधार पर निम्न निष्कर्ष अनुमानित किये जा सकते हैं—अपभ्रंश का आरम्भ अवश्य ईसा की चौथी शती में हो गया होगा, पांचवीं शती में उसका प्रयोग एक काव्य-भाषा के रूप में होना प्रारम्भ हो चुका होगा और छठी शती में तो इसे समाज में आदर मिलने लगा होगा. वलभी के शासक धरसेन का शिलालेख इस सम्बन्ध में उचित प्रमाण प्रस्तुत करता है. छठी शती से ग्यारहवीं शती तक इस भाषा में पुष्कल परिमाण में साहित्य का सृजन होता रहा. काव्यरचना की यह धारा बारहवीं शती तक चलती रही और तेरहवीं शती में देशभाषाओं में परिणत हो गई.१५ इसका अर्थ कदापि नहीं कि तेरहवीं शती के बाद अपभ्रंश में कुछ भी रचनायें नहीं हुई. वास्तविकता तो यह है कि काफी समय तक संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश का रचनाप्रयास साथ-साथ चलता रहा. संभवतः यही कारण होगा कि रुद्रट ने संस्कृत और प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश को भी साहित्यिक भाषा स्वीकार किया है.१६ भाषा-शास्त्रियों ने मध्यभारतीय आर्य-भाषाकाल की मध्यकालीन अवस्था की साहित्यिक प्राकृतों का समय पांच सौ ई० तक और उसके उत्तरकालीन अवस्था की अपभ्रंश का समय पांच सौ ई. से एक हजार ई. तक तक माना है.१७ किन्तु
१. श्यामसुन्दरदास : हिन्दी भाषा, पृ० १४. २. श्यामसुन्दरदास : हिन्दी भाषा, पृ०१६. ३. देवेन्द्रकुमार : अपभ्रंशप्रकाश-पृ० ७. ४. उदयनारायण तिवारी : हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास, पृ० १२२ से. ५. डा० गुणेःभविसयत कहा-भूमिका-पृ०३७ से उद्धृत. ६. डा० याकोबीः भविसयतकहा-भूमिका, पृ०५८. ७. डा० तगारेः हिस्टोरिकल ग्रामर आफ अपभ्रंश. ८. डा० सुनीतिकुमार चाटुाः भारतीय आर्य भाषा और हिंदी, पृ० १७८. है. डा० धीरेन्द्र वर्मा: हिन्दी भाषा का इतिहास, पृ० ४८. १०. उदयनारायण तिवारी : हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास, पृ० १२२. ११. हजारीप्रसाद द्विवेदी : हिन्दी साहित्य का आदिकाल, पृ० ६२. १२. चंद्रधर शर्मा गुलेरी : पुरानी हिन्दी, पृ०८. १३. राहुल सांकृत्यायन : दोहाकोश-भूमिका, पृ० ६. १४. नेमिचन्द्र जैन : हिन्दी जैन साहित्यपरिशीलन, भाग १ पृ० २७. १५. टेसीटरी: पुरानी राजस्थानी, पृ० ८. १६. रुद्रट : काव्यालंकार, पृ०२-१२. १७. हा० हरिवंश कौछड: अपभ्रंश साहित्य, पृ०१६.
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