Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डॉ. के. ऋषभचन्द्र: पउमचरियं के रचनाकाल-सम्बन्धी कतिपय अप्रकाशित तथ्य : ८७६
आधिपत्य स्वीकार कर लिया था. कुमारगुप्त के अन्तिम काल में गुप्त राज्य की नींव डांवाडोल हुई थी.' डा० राय चौधरी का अभिप्राय है कि इसी कुमारगुप्त का उपनाम व्याघ्रपराक्रम था. पउमचरियं के सिहोदर और व्याघ्रपराक्रम में काफी समानता है. कुछ भी हो, पउमचरियं में वणित घटना तथा ऐतिहासिक परिस्थिति से इतना तो सुस्पष्ट है कि दशपुर ईसा की चौथी और पांचवीं शताब्दियों में ही राजनैतिक हलचल का विषय बनता है. पउमचरियं के अनुसार नद्यावर्त पुर के महाराजा अतिवीर्य ने अयोध्या के राजा भरत को अपने अधीन करना चाहा. भरत ने यह आधिपत्य स्वीकार नहीं किया तब अतिवीर्य ने अनेक अन्य राज्यों से भरत के खिलाफ युद्ध करने के लिए सहायता मांगी और विजयपुर के शासक को भी अपना एक दूत भेजा. उस समय राम लक्ष्मण वहाँ पर ठहरे हुए थे. यह समाचार पाते ही उन्होंने अतिवीर्य की ओर कूच किया और छद्मरूप से उसको बन्दी बना लिया तथा उलटा भरत का आधिपत्य स्वीकार करने के लिए उसको विवश किया. इस नंद्यावर्त का संबंध प्रभावती गुप्ता के पूना के ताम्रपत्र में आए हुए नंदीवर्धन से बिठाया जा सकता है. आजकल यह स्थान रामटेक के पास में स्थित नगर्धन या नंदर्धन के नाम से परिचित है.' नंदीवर्धन वाकाटकों की राजधानी रही है. प्रवरसेन द्वितीय के पुत्र नरेन्द्रसेन के राज्य पर पांचवीं शती के मध्य में नल राजा भवदत्त वर्मा ने आक्रमण करके उसके राज्य को हथिया लिया था.५ इससे सिर्फ इतना ही स्पष्ट है कि यह क्षेत्र पांचवीं शती के मध्य में राजनैतिक हलचल और संघर्ष का शिकार बना हुआ था. अब हम पउमचरियं में आयी हुयी अन्य सामग्री का आलोचनात्मक पर्यवेक्षण करेंगे. इक्ष्वाकु राजाओं की वंशावली में आदित्ययश से राम का स्थान बासठवां है.६ संख्यात्मक दृष्टि से यह स्थान ब्राह्मण पुराणों के विवरण के अधिक नजदीक है. बाल्मीकि रामायण में जो वंशावली आती है उसमें राजा इक्ष्वाकु से राम का स्थान पैतीसवां है (वा० रा० १. ७० और २. ११०) जबकि पुराणों के अनुसार राम का स्थान अट्ठावनवां है. (भागवत पुराण ६. १-१०) विमलसूरि अपने पउमचरियं को पुराण की भी संज्ञा देते हैं (पउम १. ३२.), तथा प्रशस्ति में स्पष्ट वर्णन है कि इस पुराण में चारों पुरुषार्थों-काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष का वर्णन समाविष्ट है. ब्राह्मण पुराणों की परिभाषा का ऐतिहासिक अध्ययन करने से मालूम होता है कि जैसे-जैसे पुराणों का विकास होता गया वैसे-वैसे उनके आवश्यक अंग भी बढ़ते गये. ये चारों पुरुषार्थ परवर्ती काल में ही पुराणों के आवश्यक विषय गिनाये गये हैं. कल्याणविजयजी का मन्तव्य है कि जैन परंपरा में भी ये विषय विक्रम की पांचवीं शती के पूर्व प्रचलित नहीं हुए थे. पउमचरियं में केवल एक बार श्वेताम्बर मुनि का उल्लेख है. इक्ष्वाकु राजा सोदास के सम्बन्ध में कहा गया है कि अयोध्या से निष्कासित होने पर वे दक्षिण देश की तरफ गये और वहां पर उन्होंने एक श्वेताम्बर मुनि के पास श्रावकव्रत ग्रहण किये (पेच्छइ परिब्भमन्तो दाहिणदेसे सियंबरं पणओ-पउम० २२.७८). जैन परंपरा की दोनों मान्यताओं के अनुसार उनका संघभेद ईसा की प्रथम शताब्दी में हुआ था. फिर भी श्वेताम्बर संघ का स्पष्ट उल्लेख हमें राजा विजय मृगेशवर्मा के देवगिरि के एक शिलालेख में 'श्वेतपटमहाश्रमण संघ' के रूप में मिलता है. यह शिलालेख पांचवीं शताब्दी का है. पउमचरियं में संलेखना को श्रावकों के बारह व्रतों में स्थान दिया गया है तथा उसे चतुर्थ शिक्षापद के रूप में गिनाया
१. डा० अल्टेकर-वही, पृ० १५६, १६०, १६६, १६७. २. पॉलिटिकल हिस्टरि आव एशियंट इण्डिया (चतुर्थ संस्करण), पृ० ४८०. ३. पउमचरियं, अ०१७ ४. वी० सी० ला....हिस्टोरिकल जोग्राफी आव एशिया इण्डिया, पृ० ३२३ और डी० सी० सरकार-सिलेक्ट इन्सक्रिप्शन्स भा०१
पृ०४०७. ५. टा० अल्टेकर-वही, पृ०१०५, १०७. ६. पउमचरियं, अ०५, २१ और २२. ७. मत्स्यपुराण ५. ३.६६ और १० टी० पुसलकर स्टडीज इन एपिक्स एण्ड पुराणाज आव इण्डिया, प्रस्तावना. पृ० ४६. ८. कल्याणविजयजी-श्रमण भगवान महावीर पृ० ३०४.
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