Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा० गोवर्धन शर्मा : अपभ्रश का विकास : १०१
वार्तिक-शब्दप्रकृतिरपभ्रंशः इति संग्रहकारो नाप्रकृतिरपभ्रंशः स्वतंत्र: कश्चिद्विद्यते. सर्वस्यैव हि साधुरेवापदंशस्य प्रकृतिः प्रसिद्धेस्तु रूढितामापाद्यमाना स्वातन्त्र्यमेव केचिदपभ्रशा लभन्ते. तत्र गौरिति प्रयोक्तव्ये अशक्त्या प्रमादिभिर्वा गाव्यादयस्तत्प्रकृतयोपभ्र शाः प्रयुज्यन्ते.' महाभाष्यकार पतंजलि द्वारा भी 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग किया गया है. उनके अनुसार अपभ्रश केवल संस्कृत के विकृत शब्द हैं. किसी एक शब्द के अनेक भ्रष्ट रूप हो सकते हैं, यथा-संस्कृत शब्द गौः के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि विविध रूपान्तर. ये सभी रूपान्तर शिष्टसम्मत संस्कृत भाषा से विकृत या भ्रष्ट हैं, अतः ऐसे अपाणिनीय असाधु शब्दों के लिये अपभ्रंश संज्ञा का उपयोग किया गया. यह विचारणीय है कि महाभाष्यकार की दृष्टि में अपभ्रंश केवल उन शब्दों को दी जानेवाली संज्ञा है, जो संस्कृत शब्दों के साधु रूपों में विकृत या भ्रष्ट स्वरूप हैं और जिन शब्दों का उन्होंने अपभ्रश के उदाहरण में उपयोग किया है. बाद के प्राकृत वैयाकरणों ने उन्हीं को प्राकृत के अन्तर्गत गिना है, यह चिन्त्य है.' ईसा की दूसरी अथवा तीसरी शती के लगभग भरत ने नाट्यशास्त्र में संस्कृत, और देशी भाषा के भेद को स्पष्ट किया है. साथ ही उन्होंने प्राकृत के स्वरूप पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है.
एतदेव विपर्यस्तं संस्कारगुणवर्जितम् । विज्ञेयं प्राकृतं पाठ्यं नानावस्थान्तरात्मकम् । त्रिविधं तच्च विज्ञेयं नाट्ययोगे समासतः । समानशब्दविभ्रष्टं देशीगतमथापि च ।।
-नाट्यशास्त्र १७-२-३ अर्थात् प्राकृत तीन प्रकार की होती है—(१) जिसमें संस्कृत के समान शब्दों का ही प्रयोग हो. (२) संस्कृत के विभ्रष्ट शब्दों का ही प्रयोग हो. (३) जिसमें देश्य भाषा के शब्दों का प्रयोग हो. दूसरे शब्दों में इसी बात को इस प्रकार कहा जा सकता है कि नाट्यरचना में तीन प्रकार के शब्दों का प्रयोग होता है-तत्सम, तद्भव, अथवा विभ्रष्ट और देश्य. यहाँ ऐसा लगता है कि पतंजलि की अपभ्रश और भरत की विभ्रष्ट शायद एक ही हो. आगे चलकर भरत ने तत्कालीन सात भाषाओं का निर्देश किया है
मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्धमागधी ।
बालीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ।। -नाट्यशास्त्र १७-४६ मागधी, अवन्ति, प्राच्य, शौरसेनी, अर्धमागधी, बाह लीका और दक्षिणी, ये सात भाषायें हैं और अनेक विभाषायें हैं. यथा--
शबराभीरचांडाल सचर द्रमिलान्ध्रजाः । (शबराभीर चांडाल द्रविडोद्राः) हीना बनेचराणां च विभाषा नाटके स्मृताः ।।
-नाट्यशास्त्र १७-५० शबरों, आभीरों. चाण्डालों, चरों, द्रविड़ों, ओड्रों और हीन जाति के वनचरों की बोलियाँ. भरत के इस उल्लेख में अपभ्रश का स्पष्ट नाम नहीं आया है, क्योंकि उसने केवल भाषाओं का उल्लेख किया है. इससे यह जान पड़ता है कि भरत के समय तक किसी भी भाषा को अपभ्रश की संज्ञा नहीं दी गई थी अर्थात् अभी तक अपभ्रश का विकास उस कोटि तक
१. भत हरि, वाक्यपदीयम्-प्रथमकांड कारिका १४८ लाहौर संस्करण । २. Ed. kielhorn, Vol. I, Page 2.
एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः तद्यथा-गौरित्यस्य गावो, गौणी. गोता, गोपोतलिकेत्येवमादयोऽपभ्रंशाः । ३. (अ) चंड-प्राकृतलक्षणम् -२-१६ 'गोर्गाविः'
(आ) हेमचन्द्राचार्यः प्राकृतव्याकरण-८-२-१७४. “गोणादय गौर, गोणी, गावी, गावः गावीओ"
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