Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा. गोवर्धन शर्मा : अपभ्रश का विकास : ६०३ ई० के प्राप्त हुये है. वूलर प्रस्तुत शिलालेख को कुछ वर्ष बाद का मानते हैं.२ फिर भी यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रश भाषा में काव्यरचना होने लग गई थी, यद्यपि प्रमाणस्वरूप उस युग की कोई रचना अभी तक हमें प्राप्त नहीं हो सकी है. । इसी शती के अन्तिम चरण में एक और प्रमाण मिलता है. आचार्य भामह ने अपभ्रश को काव्योपयोगी भाषा और काव्य का एक विशेष रूप माना है. यथा
शब्दार्थी सहितौ काव्यं गद्य पद्य च तद् द्विधा ।
संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रश इति त्रिधा ।। -काव्यालंकार, १.१६-२८. भामह का यह उल्लेख हमें केवल यही सूचित करता है कि अपभ्रंश भी तत्कालीन एक काव्य-भाषा थी. इस भाषा का प्रयोग कौन करते थे, यह कहां बोली जाती थी, आदि प्रश्नों का उत्तर हमें भामह से नहीं मिलता. चंड ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण 'प्राकृतलक्षणम्' में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग 'न लोपोऽपभ्रशेऽधोरेफस्य' सूत्र में, विशेषभाषावाचक रूढ़ संज्ञा के रूप में किया है. दंडी ने अपथे ग्रंथ 'काव्यदर्श' में काव्य की भाषा के चार भेद बताये हैं-संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और मिश्रित.
तदेतद् वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा। अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुरायश्चतुर्विधम् ॥
-काव्यादर्श १-३२. आगे चलकर वह अपभ्रंश का व्याकरण-सम्मत रूढ़ और भाषा के रूप में होनेवाले प्रयोगों पर प्रकाश डालता हुआ कहता है:
भाभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शारत्रेषु संरकलादन्यदपभ्रंशशयोंदितम् ।।
-काव्यादर्श १-३५. अर्थात् भाषाशास्त्र या व्याकरण में अपभ्रंश का अर्थ है संस्कृत के विकृत रूप. काव्य में आभीरादि बोलियां अपभ्रंश कहलाती हैं. संस्कृत से इतर भाषाओं को अपभ्रश कहकर दंडी ने पतंजलि का समर्थन किया है और साथ ही उसने अपभ्रश और आभीरों के संबंध का भी उल्लेख किया है. इससे जान पड़ता है कि दंडी के समय में अपभ्रश साहित्यिक भाषा बन चली थी और इसका प्रयोग आभीरों के अतिरिक्त (आभीरादि) अन्य लोग भी करने लग गये थे. इस प्रकार भरत के समय में आभीरी नाम से प्रसिद्ध आभीरोक्ति दंडी के समय में अपभ्रश में परिणत होकर बोलचाल तथा साहित्य की भाषा बन गई थी. 'कुवलयमाला कथा' के रचयिता जैन लेखक उद्योतनसूरि ने [वि० की नवीं शती] अपभ्रश का प्रयोग एक भाषा विशेष के अर्थ में किया है. वे अपभ्रश काव्य के बड़े प्रशंसक हैं, वे उसे प्रांजल, प्रवाहमय और मनोहर मानते हैं.४ रुद्रट अपने काव्यालंकार में काव्य को गद्य और पद्य में विभाजित करने के पश्चात् भाषा के आधार पर उसका छह भागों में विभाजन करता है. संस्कृत, प्राकृत, मागधी, सौरसैनी, पिशाचभाषा और अंतिम अपभ्रश, जो स्थान-भेदों से अनेक स्वरूप ग्रहण कर लेती है. भाषाभेदनिमित्तः षोढा भेदोऽस्य संभवति ।
-काव्यालंकार २-११
१. Bombay gazette. Vol. 1 Part 1, Page 90. २. Indian Antiquery. Vol. 10, Oct 1881, Page 277. ३. चंड: प्राकृतदक्षणम्-पृ० २४, सूत्र ३७. ४. ला० भा० गांधी : अपभ्रंश काव्यत्रयो भूमिका पृ०१७ से उद्धत
ता किं अवहंसं होहिइ ? हूं. तं पिणो जेण तं सक्कयाइय-उभय-सुद्धासुद्धपयसमतरंगरंगतबग्गिरं रणव-पाउस जलयपवाहपूरत्वालियगिरिगइसरिसं समविसमं पण्यकुवियपियपणइणीसमुल्लावसरिसं मणोहरं.
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