Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
नहीं हो पाया था कि उसे भाषा कह कर पुकारा जा सके. विभाषाओं के उस समय कोई अलग नाम नहीं थे, वे बोलनेवाली जातियों अथवा समुदाय के नाम से ही पुकारी जाती थी. जैसे
अंगारकार-व्याधानां काष्ठयन्त्रोपजीविनाम् । योज्या शबरभाषा तु किंचिद्विानोकसी तथा । गवाश्वाजाविकौष्ट्रादिघोषस्थाननिवासिनाम् ।
अाभीरोक्तिः शाबरी वा द्राविडी द्रविडादिषु । -नाट्यशास्त्र १७-५४.५५ अर्थात् शबर और धनौसी जंगली भाषाका प्रयोग अंगारकारों-कोयला बनाने वालों, शिकारियों और काष्ठयंत्रों द्वारा जीविका निर्वाह करने वाले व्यक्तियों द्वारा तथा आभीरोक्ति और शाबरी का उपयोग गौ,अश्व, ऊँट आदि पशुपालक और घोषनिवासी ग्वालों के गाँव में रहने वाले जनों द्वारा ..........किया जाता है. इससे यह ज्ञात होता है कि आभीरादि पशुपालक जातियों की भाषा आभीरोक्ति नाम से जानी जाती रही है. जैसा कि हम अन्यत्र देखेंगे, यही आभीरोक्ति इतनी विकासमान हो गई कि इसने अपना स्थान प्राकृतादि अन्य साहित्यिक भाषाओं के समकक्ष जमा लिया.
संभवतया भरत के समय भाषा के रूप में अपभ्रश को कोई महत्त्व प्राप्त नहीं था, किन्तु जान पड़ता है कि आगे चलकर इसी आभीरोक्ति को ही अपभ्रश की संज्ञा प्राप्त हो गई. भरत ने नाटककार के लिये विभिन्न प्रदेश के निवासी पात्रों द्वारा किस प्रकार की बोली प्रयुक्त की जाय, इस विषय में खुलासा निर्देश दिये हैं. उन्होंने लिखा है कि गंगा और सागर के मध्य की भाषा एकार-बहुला है. हिमालय, सिन्धु और सौवीर के तटीय प्रदेश की भाषा उकारबहुला है, विध्याचल और सागर के मध्य की भाषा नकारबहुला है, सौराष्ट्र अवन्ति और वेत्रवती के उत्तरीय प्रदेश की भाषा चकारबहुला है और चर्मवती के उस पार तथा अर्बुद के तटीय प्रदेश की भाषा टकारबहुला है.' भरत ने इस प्रकार की उकारबहुला भाषा के उदाहरण भी दिये हैं. यथा—'मोरल्लउ नच्चन्तउ' इत्यादि. दण्डी के इस कथन से कि काव्य में आभीरादि की भाषा अपभ्रंश कही जाती है, यह अनुमान लग जाता है कि भरत की उकारबहुला आभीरोक्ति अपभ्रंश रही होगी. भरत ने जो उदाहरण इस उकार-बहुलां-आभीरोक्ति के दिये हैं, उनमें 'णेह' 'णिच्च' 'जोण्हउ' आदि शब्द हैं भी ठेठ अपभ्रश के. परन्तु भरत के इन उदाहरणों में प्राकृत-प्रभाव इतना अधिक है कि इनको विशुद्ध अपभ्रश का उदाहरण नहीं माना जा सकता. हां अपभ्रश को जन्म देनेवाली प्रवृत्तियों के बीज यहां अवश्य देखे जा सकते हैं.३ लगभग छठी शताब्दी में पहलेपहल हमें अपभ्रंश का एक भाषाविशेष के रूप में उल्लेख मिलता है. वलभी सौराष्ट्र के राजा धरसेन द्वितीय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसका पिता गुहसेन 'संस्कृत-प्राकृतापभ्रंश भाषात्रयप्रतिबद्धप्रबंध-रचना-निपुणान्तःकरणः' था. जिस गुहसेन का ऊपर उल्लेख किया गया है, उसके शिलालेख ५५६ ई० से ५६६
१. भरतः नाट्यशास्त्र
गंगासागरमध्ये तु ये देशाः संप्रकीर्तिताः, एकारबहुलां तेषु भाषां तज्ज्ञः प्रयोजयेत् 1५८ । विध्यसागरमध्ये तु ये देशाः श्रुतमागताः, नकारबहुलां तेषु भाषां तज्ज्ञः प्रयोजयेत् ।५६ ।
सुराष्ट्रावन्तिदेशेषु वेत्रवत्युत्तरेषु च, ये देशास्तेषु कुर्वीत चकारबहुलामिड ६०1 हिमवसिंधुमौवारान्ये च देशाः समाश्रिताः, उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत् ।६१।
चर्मण्वतीनदीपारे ये चानुदसमाश्रिताः, तकारबहुलां नित्यं तेषु भाषां प्रयोजयेत् ।६२। २. केशवलाल ह. भुवः पद्यरचना नी ऐतिहासिक अालोचना, पृ० २८३-२८६. ३. उदयनारायण तिवारी : हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास, पृ० १२१. ४. Indian Antiquery Vol. 10. Oct 1881, Page 284.
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