Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८८० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
गया है (पउम १४. ११५, ६३.४६) वैसे संलेखना को बारह व्रतों में सम्मिलित नहीं किया जाता है. यह परम्परा किस समय से प्रचलित हुई यह विचारणीय है. आचार्य कुन्दकुन्द ने, जिनका समय पांचवीं शती' के लगभग का है, अपने चारित्रपाहुड (२५) में संलेखना को बारह व्रतों में स्थान दिया है और इसी क्रम से गिनाया है. पउमचरियं में "रात्रिभोजनत्याग" को श्रावकों का छठा अणुव्रत बतलाया है. ऐसा केवल एक ही वार उल्लेख है (पउम ६, १२०) ऐसी परम्परा कहाँ, किस समय चली और किसने चलायी, यह भी अध्ययन का विषय है. आगे चलकर चामुण्डराय ने अपने चारित्रसार और वीरनंदि ने अपने आचारसार में इसे धावकों का छठा अणुव्रत गिनाया है. इतना सुस्पष्ट है कि यह व्रत पूज्यपाद के समय में प्रचलित था. वे अपनी 'सर्वार्थसिद्धि' में इसका जिक्र करते हैं. पउमचरियं में करीब बीस प्रकार की भिन्न-भिन्न तपस्याओं का उल्लेख आता है. आगम-साहित्य व मूलाचार में इनमें से बहुतों का उल्लेख नहीं मिलता. डा० देव का अभिप्राय है कि तपश्चर्याओं की बहुलता बाद में विकसित हुई है.२ पउमचरियं के रचयिता ने अपने आपको 'सूरि' की पदवी से विभूषित किया है. 'सूरि' कहलाने की परम्परा प्राचीन नहीं है. कल्पसूत्र स्थविरावली, नन्दीसूत्र पट्टावली और मथुरा के शिलालेखों में किसी भी आचार्य का 'सुरि' के रूप में उल्लेख नहीं है. डा० देव का मत है कि प्राचार्य के स्थान पर सूरि शब्द का प्रयोग मध्यकाल से ही अधिकांश रूप में नजर आता है.. पउमचरियं में जिनमन्दिर बनवाने व प्रतिष्ठा करवाने का काफी आग्रह है. कई स्थानों पर इस सम्बन्ध में उपदेश दिये गये हैं. (पउम-८-१६७, ४०६, ८६.५१) तीर्थंकरों की मूत्तियों की पूजा में अष्टद्रव्य का प्रचलन हो चुका था. भरत को उपदेश देते हुए एक मुनि बतलाते हैं कि पुष्प, धूप, चन्दन, सुगन्धितद्रव्य, दीप, दर्पण, अभिषेक, नैवेद्य इत्यादि से भगवान् की पूजा करने पर अत्यन्त पुण्य का उपार्जन होता है और अच्छी गति प्राप्त होती है (पउम०-३२ ७२-८१). भगवान् के अभिषेक करने की बहुत महिमा बतायी गयी है और अभिषेक के कई उदाहरण इस ग्रंथ में उपलब्ध हैं. कल्याणविजयजी का मन्तव्य है कि पूर्वकाल में जल का उपयोग आचमन के रूप में था, स्नान के रूप में नहीं. अभिषेक, विलेपन इत्यादि बाद की परम्पराएँ हैं. पउमचरियं के अनुसार वैसे तो मुनि लोग वन, उपवन, उद्यान, उपत्यका, गुफा और चैत्यों में ठहरते थे परन्तु जिन-मन्दिरों में ठहरने की प्रथा भी चल पड़ी थी (पउम० ८६. १४, १८ २०) ! इस प्रकार चैत्यवास की झलक पउमचरिय में मिलती है. कल्याणविजयजी का अभिप्राय है कि जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, साधुओं का जिन-चैत्यों में ठहरना इत्यादि विषय विक्रम की पांचवीं शती से प्रचलित हुए जान पड़ते हैं.४ पउमचरियं महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में निबद्ध है और वह काफी विकसित रूप में है. साथ ही साथ उस पर उस समय की बोलचाल की भाषा का प्रभाव भी है. इस बोलचाल की भाषा की जो विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, उनसे विश्लेषण करने पर मालूम होता है कि वे ही आगे चलकर अपभ्रश की मूल प्रकृतियाँ बन गयीं. इस क्षेत्र में निम्नलिखित विशेषताएँ ध्यान देने योग्य हैं : अव्ययों के साथ-साथ नामवाची रूपों तथा क्रियापदों में लघु और दीर्घ स्वरों का वैकल्पिक प्रयोग व श्रुति के बीसों उदाहरण. क्रिया के पूर्वकालिक रूपों में 'एवि' प्रत्यय का तीन बार प्रयोग. कम से कम दस बार 'किह' और 'कवण' 'कथ' और 'किं' के स्थान पर प्रयोग. नाम के प्रथमा व उससे भी अधिक द्वितीया एक वचन विभक्ति के लोप के यत्रतत्र फैले हुए उदाहरण. स्त्रीवाची 'आकारान्त शब्दों में पच्चीस प्रतिशत और इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों में पचास प्रतिशत के औसत से द्वितीया एक वचन विभक्ति का लोप. अनुस्वार सहित अंतिम लघु स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर आने के कुछ उदाहरण. उसभ व नाम शब्द के तृतीया विभक्ति के दो उदाहरण 'उसभे' व 'नामे' और उपमा व उत्प्रेक्षा अलंकार में सूचक शब्द ‘णज्जइ' का प्रयोग.
१. डा०होरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० ८३, १५, १६. कल्याणविजयजी-चही, पृ० ३४६. २. डा० एस० नो० देव-हिस्टरि आव जैन मोनासिज्म, पृ० १८७, ५६३. ३. वहीं पृ० २३२, २३७, ५१४. ४. श्रमण भगवान् महावीर, पृ० ३०४, ३०५.
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