Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८६४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय मेवाड़, मारवाड़, वागड़, सिन्ध, दिल्ली और गुजरात रहा. जिनदत्तसूरि व्याकरण, कोष, छन्द, काव्य, अलंकार, नाटक ज्योतिष, वैद्यक और दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित और एक समर्थ साहित्यकार थे. प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रश के इस विद्वान लेखक ने अनेक ग्रन्थों की रचना की. 'गणधर सार्धशतक' उनका एक विख्यात ग्रन्थ है जिसमें प्रसिद्ध गणधरों की प्रशस्तियाँ हैं. इस ग्रन्थ में १५० प्राकृत गाथाएँ है. श्री जिनदत्तसूरि की निम्न रचनाओं का उल्लेख मिलता है१. गणधर सार्धशतक (प्राकृत)
२. संदेह दोहावली ३. चैत्यवंदन कुलकम्
४. सुगुरुपारतंत्र्यस्तव (प्राकृत) ५. उपदेश रसायनम् [अपभ्रंश
६. चर्चरी [अपभ्रश] ७. कालस्वरूप कुलकम् [अपभ्रश]
८. सर्वाधिष्ठायि स्तोत्रयं (प्राकृत) ६. विघ्नविनाशिस्तोत्र (प्राकृत)
१०. विशिका (संस्कृत) ११. उपदेशकुलकम्
१२. अवस्था कुलकम् १३. श्रुतस्तव
१४. अध्यात्मगीतानि १५. उत्सूत्र पदोद्घाटन. कथित धर्मगुरुओं के विरुद्ध आन्दोलन करके उन्होंने नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा पर बल दिया. वे विख्यात साहित्यसमालोचक मम्मट के समकालीन थे. मम्मट काव्य में रस को प्रधानता देते हैं और जिनदत्तसूरि की रचनाओं में भी भावपक्ष प्रधान है. उनका सृजन स्तुतिपरक भी रहा और औपदेशिक भी. सोमसुन्दरसूरि—तपागच्छ के प्रभावक और विद्वान आचार्य सोमसुन्दरसूरि का सम्बन्ध मेवाड़ के देलवाड़ा नामक स्थान से रहा है. सन् १४५० से इन्हें उपाध्याय पद प्राप्त हुआ और उन्होंने तत्काल ही देवकुलपाटक (देलवाड़ा) में प्रवेश किया. तब राणा लाखा के मंत्री रामदेव और चूण्डा ने प्रवेशोत्सव करवाया. आचार्य सोमसुन्दर ने देलवाड़ा में ही 'संतीकरं स्तोत्र' की रचना की जिसका पाठ आज भी जैन समाज में प्रतिदिन किया जाता है. इनके समय में देलवाड़ा में प्रचुर साहित्यसृजन और प्रतिलेखन हुआ. चित्रकूट (चित्तौड़) और देलवाड़ा के साथ-साथ मेवाड़ के आघाट [आयड़], करहेड़ा [करेड़ा], नागदह [नागदा], केशरिया जी, कुंभलगढ़, मांडलगढ़, बिजौलिया, जावर, उदयपुर, कांकरौली आदि अनेक क्षेत्रों में भी विपुल जैन साहित्य की रचना हुई है.
मेवाड़ का सृजन १. शलाका सत्तरी-जैन आचार्य हेमतिलकसूरि रचित अपभ्रंश भाषा की इस रचना में सत्तर महापुरुषों के जीवनचरीत्र हैं. हेमतिलकसूरि को आचार्य पद सं० १३८२ में प्राप्त हुआ. २. मातृकाक्षर चैत्य परिपाटी-फाल्गुन सु० ६ सं० १४७७ में आचार्य हेमहंस ने इस कृति की रचना की. इसमें अकारादि क्रम से जैन तीर्थों की नामावली प्रस्तुत की गई है. उक्त कृति की एक प्रति मुनि कान्तिसागर जी के संग्रह में देखने को मिली है जिसका लिपिकार भी लेखक स्वयं है. ३. गुरुगुणषट्त्रिंशिका-श्री रत्नशेखरसूरि ने सं० १४८५ में जैन गुरुओं पर यह अपभ्रंश का स्तुति काव्य लिखा. मुनि कान्तिसागर जी के संग्रह में जो प्रति मिली उसके लिपिकार भी श्री रत्नशेखरसूरि ही हैं.
१. गणधर सार्धशतक और उनको बृहद् वृत्ति-मुनि कांतिसागर,
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