Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१३८ : मुनि श्रीहजारीमलजी स्मृति ग्रन्थ : अध्याय
इस असाधारण कवि-व्यक्तित्व की गणना अब तक के किसी साहित्य के इतिहासकार ने नहीं की. सर्वप्रथम इस सुकुमार कवि-पुष्प पर 'मधुकर की तरह मंडराने वाले हैं मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज. '
जीवन वृत कविवर जयमल्लाजी का जन्म सं० १७६५ भादवा सुदि १३ को जोधपुर राज्यान्तर्गत मेड़ता से जैतारण की ओर जाने वाली सड़क पर अवस्थित 'लांबिया' नामक गांव में हुआ. पिता और माता का नाम क्रमशः मोहनलाल जी एवं महिमा देवी था. ये समदड़िया महता गोत्रीय बीसा ओसवाल थे. इनके पिता कामदार थे. बड़े भाईका नाम रिड़मल था. २२ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह रीयां निवासी शिवकरणजी मूथा की सुपुत्री लक्ष्मीदेवी के साथ हुआ. दीक्षा प्रसंग – जयमल्लजी की वैराग्य भावना सहज स्फूर्त थी, वह आरोपित या विवश क्षणों की परिणति नहीं थी. व्यापारी बनकर कर्मक्षेत्र में उतरे अवश्य पर व्यापार उनका लक्ष्य नहीं था. धर्म की ओर रुझान होते हुए भी पागलों की तरह 'उसके पीछे भटके नहीं. संयोग की ही बात थी कि वे अपने व्यावसायिक मित्रों के साथ सौदा करने के लिए मेड़ता गए. वहां बाजार बन्द देख अनायास ही स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्रीधर्मदासजी की शाखा के प्रशासक पूज्यप्रवर भूधरजी महाराज की सेवा में उपस्थित हो गये. भूधरजी महाराज अपने प्रवचन मैं ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़ता और महत्ता पर सेठ सुदर्शन का जीवन प्रसंग गा-गाकर सुना रहे थे. युवकहृदय पहली बार इस संयम भावना से अभिभूत हुआ. आषाढ़ की प्रथम दृष्टि का स्पर्श पाकर झुलसी धरती जिस प्रकार हरी-भरी हो उठती है उसी प्रकार धर्मदेशना के अमृत का पान कर जयमल्ल सांसारिक विषय-वासनाओं की ज्वाला को शान्त कर सका. एकदम आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार कर लिया पर सन्तोष कहाँ ? वह तो पूर्ण साधक बनने की प्रतिज्ञा कर चुका था, कैसे मेड़ता छोड़कर चला जाय ? मां की ममता और पिता का आक्रोश, सबसे बढ़कर नवपरिणीता वधू का ज्वार-भाटे की तरह उफनता हुआ प्यार पर सब व्यर्थ ! कोई उसे न रोक सका. पत्नी द्विरागमन की तैयारी में तल्लीन और पति श्रमणजीवन की तैयारी में तत्पर
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साधना काल - श्रीजयमल्लजी साधना में वस्त्र की तरह कठोर थे. विचारों में प्रेम और कर्त्तव्य का द्वन्द्व नहीं था. इनकी विवाहिता पत्नी भी संयममार्ग की पथिका बन गई थी. जीवन का एक ही लक्ष्य था- आत्म-कल्याण. श्रमणजीवन में प्रवेश करते ही एकान्तर तप की आराधना प्रारम्भ हो गई जो १६ वर्ष तक निरन्तर चलती रही.
ये अध्यवसायी ही नहीं अथक अध्येता भी थे. बुद्धि के धनी और स्मृति के चिरसहचर थे. दीक्षा लेने के बाद स्वल्प समय में ही इन्होंने 'श्रमण सूत्र' कण्ठस्थ कर लिया था, तभी तो सप्ताह भर बाद ही बड़ी दीक्षा हो गई. मेधा के चमत्कार का क्या कहना ? एक ही प्रहर में पांच शास्त्र कण्ठस्थ कर लिये थे.
धुन के पक्के थे. गुरु के प्रति असीम बढा थी. जब भूधरजी स्वर्ग सिधारे सभी प्रतिज्ञा कर ली भी कभी न लेटने की.
१. इन्होंने 'जयवाणी' नाम से आचार्यश्री की रचनाओं का संकलन किया है जो सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा से प्रकाशित हुआ है. २. पूज्य गुणमाला : श्रीचौथमलजी महाराज, पृ० ८.
३. संवत १७८८ ज्येष्ठ शुक्ला 'पूज्य गुणमाला' के अनुसार
४. पूज्य
धर्मदासजी युगप्रधान आचार्य थे. इनका जन्म अहमदाबाद के पास सरखेज गांव में जीवन भाई पटेल के यहाँ सं० १७०१ चैत्र शुक्ला एकादशी को हुआ था. सं० १७२१ में वे आचार्य बने और ३८ वर्ष तक धर्म प्रचार करने के बाद सं० १७५९ में स्वर्गस्थ हुए. जिनवाणी: सितम्बर १९६०, पृ० २२८-३२.
५. भूधरजी का जन्म सं० १७१२ में हुआ था और मृत्यु सं० १८०४ में. ये अच्छे व्याख्याता और सफल धर्मप्रचारक थे.
६. जयमल्लजी ने सं० १७०७ (गुणमाला के अनुसार १७८८) की मार्गशीर्ष कृष्णा द्वितीया को मेड़ता में दीक्षा ली. सात दिनों के बाद ही 'बिकरणिया' गांव में इनकी बड़ी दीक्षा हुई.
७. एक दिन उपवास एक दिन आहार के क्रम को एकान्तर तप कहते हैं.
८. (१) कप्पिया (२) कप्पवडंसिया (३) पुष्क्रिया (४) पुण्कचूलिया (५) बरिहदसा.
६. पांच सूत्र तो एक पहर में पढ़कर कंठो करियारे' - गुणमाला, पृ० ५७.
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