Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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गोपालनारायण बहुरा जैनवाङ्मय के योरपीय संशोधक : ७४७ हर और बेबर ने अपनी रिपोटों निवरयों और स्वतंत्र लेखों के द्वारा अनुवर्ती शोधविद्वानों को भी प्रोत्साहित किया. जैकोबी सम्पादित 'कल्पसूत्र' के समीक्षात्मक संस्करण में, जो सन् १८६७ ई० में प्रकाशित हुआ, ब्यूलर का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है. इसी प्रकार लिउमैन (Leumann १८५६-१६३१ ई० सन् ) के 'औपपातिक सूत्र' (१८८३ ) पर वेबर की स्पष्ट छाप है. ये दोनों ही कृतियाँ प्राचीन भाषाशास्त्र की सर्वोत्तम निधियाँ हैं. जैकोबी (१८६०-१९३७ ई०) ने कल्पसूत्र की जो भूमिका लिखी है वह तो प्रायः अब तक हुए इस दिशा के अनुसंधानों की पृष्ठभूमि ही बन गई हैं. उसने जैन और बौद्धमतों की प्राचीनता के विषय में सभी सन्देहों को निरस्त कर दिया है और यह निर्णय स्थापित किया है कि जैनमत बौद्धमत से बहुत पुराना है. गौतम बुद्ध के समय से बहुत पहले ही जैनमत का प्रादुर्भाव हो चुका था. वर्द्धमान महावीर जैनमत के आदि प्रवर्तक नहीं थे. वे तो पार्श्वनाथ के उपदेशों के परिष्कारक मात्र थे. उसने यह भी बताया है कि पार्श्वनाथ महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व हो चुके थे और महावीर का निर्वाणकाल ४७७ ई० पू० था. टोपरा के शिलालेख से विदित होता है कि अशोक महान् जैनों से 'निगण्ठ' नाम से परिचित था.
योरप में जैन संशोधन की प्रगति को देखते हुए पिशेल ( Pischel) ने आशा व्यक्त की थी कि जैनशास्त्रों के मूलपाठों के सम्पादन एवं प्रकाशन के निमित्त एक जैन ग्रन्थ पाठ - प्रकाशन समिति की स्थापना हो सकेगी, परन्तु उनका यह स्वप्न पूरा न हो सका. इतना अवश्य हुआ कि भारत के जैन समाज में चेतना आ गई और आगमोदय समिति आदि अनेक संस्थाओं ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ाया. अनेक जैन ग्रन्थों का सटिप्पण, सावचूरि एवं नियुक्ति सहित प्रकाशन हुआ. इससे एक लाभ यह हुआ कि पहले जो मूल ग्रन्थ योरपीय विद्वानों के हाथ लगे थे वे बड़ी अस्तव्यस्त दशा में थे और वे उनके पाठ को ठीक-ठीक समझ नहीं पाते थे. विविध प्रतिलिपिकर्त्ताओं ने लम्बी प्रशस्तियाँ अथवा प्रचलित पाठ का संक्षिप्त रूप देकर उन्हें और भी दुर्गम्य बना दिया था. ऐसी प्रतियों में दिये हुए संकेतों को समझना जैनविद्वानों की सहायता के बिना संभव नहीं था. ब्यूलर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बहुत-सा जैन साहित्य तलघरों में प्रच्छन्न अवस्था में पड़ा है जिसके विषय में स्वयं जैनों को अथवा उन भण्डारों के संरक्षकों तक को ठीक-ठीक पता नहीं है. जैसलमेर के बड़े भण्डार को देखने जब वह गये तो वहाँ ग्रन्थों की संख्या के विषय में कुछ का कुछ बता दिया गया. अस्तु – भारतीय जैन विद्वानों के आगे आने से योरपीय संशोधकों का भी मार्ग बहुत कुछ सरल हो गया और वे इसमें अधिकाधिक रस लेने लगे. इसके फलस्वरूप लिउमैन (Leumann ) ने जैन सिद्धान्तों का अध्ययन करके आवश्यक सूत्रों पर कार्य किया और जैन कथाओं के विषय में भी अपने अभिमत प्रकट किए. हर्टेल ( Hertel) ने कथाओं को लेकर, विशेषत: गुजरात में प्राप्त साहित्य के आधार पर बहुत अध्ययन किया. उसने इन कथानकों के आधार पर भारतीयेतर साहित्य में भी समानान्तर आधार कथाओं का अन्वेषण किया.' हटेल का कहना है कि जैनकथाओं में संस्कृत भाषा का जो रूप प्रयुक्त हुआ है वह साधारण बोलचाल की भाषा थी, जिसमें प्राकृत अथवा प्रांतीय बोलियों के बहुत से शब्द स्वतः सम्मिलित हो गये हैं. यदि आज की भाषा में कहें तो उन पर आंचलिक छाप लगी हुई है, जो शास्त्रीय व्याकरण-सम्मत भाषा से भिन्न है. वैसे भी, प्राकृत शब्दों, संस्कारित प्राकृत लोकभाषादि के शब्दों, विविध व्याकरणों से लिए हुए शब्दों और अज्ञातमूलक शब्दों का संभार जैन संस्कृत की विशिष्टता मानी जाती है.
साहित्यिक और ऐतिहासिक अनुसंधान में ग्रन्थ सूचियों बहुत काम की होती है. यदि इनको अनुसंधान- भित्ति की आधारशिलाएँ भी कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी. इस दिशा में क्लाट ( Klatt) ने पहल की थी. उसने जैन ग्रंथकारों और ग्रंथों की इतनी बड़ी अनुक्रमणिका तैयार की थी कि वह प्रायः ११००-१२०० पृष्ठों में मुद्रित होती. परन्तु दैवदुर्विपाक से वह विद्वान् किसी गम्भीररोग के चक्कर में पड़ गया और कार्य पूरा होने से पूर्व ही चल बसा. वेबर और लिउमैन
१. Hisfory of Indian Literature by Winternitz, Pt. II
२. Bloomfield.
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