Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८३२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
स्फुट कवित्त- इसमें संदेह नहीं कि महाराजा राजसिंह नैसर्गिक कवि थे. बाल्यकाल से ही कविता में प्रवृत्ति रही है. अतः अनुमान था कि एक ओर जहां इनकी स्वतन्त्र रचनाएँ मिलती है वहां दूसरी ओर इनका स्फुट कवितादि का साहित्य भी मिलना चाहिए, क्योंकि कवि हृदय और उर्वर मस्तिष्क सामान्य निमित्त पाकर भी फूट पड़ता है. वृद के वंशज और अपने युग के किशनगढ के प्रतिभासम्पन्न कवि खुशराम या मगनीराम द्वारा सं० १८७८ में प्रतिलिपित उन्हीं के पूर्वज एवम् राजसिंह के समकालीन कवि वल्लभ रचित 'वल्लभविलास" की प्रति सुरक्षित है. इसके अंतिम भाग में ३० कवित्त आलेखित हैं जिनके शीर्ष स्थान पर "श्री महाराजाधिराज श्री राजसिंघ जी रा कह्या कवित्त" यह पंक्ति लिखी है. पर कवित्त में कहीं भी न तो इनका नाम है और न ही इनकी छाप है. उदाहरण स्वरूप एक कवित्त उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं किया जा सकता है
करो जिन सोर वह ठाढो चित चोर एरी पेम फेम जोर जोर डरो दिन चोर मैं । फिर चहुँ ओर यहही षोर गहो करा जोर पायो आज भोर पर्यो सषीन की जोर मैं ॥ मान कह्यो मोर यह नन्द को किशोर जब भुजन सौं जोर राषो घर मार मैं ।
देहूं फोर को तुम्हें कहत निहोर सषी कोरक मरोर याकी देषो नैन कोरमें ॥१॥ इसी गुटके में आगे २१ कवित्त और हैं जिनके आगे टिप्पणी है "श्रीमाजी साहिबा रा कह्या दोहा” संभवतः ये पद्य ब्रजदासी के हों?
ब्रजदासी-बांकावतो-महाराजा राजसिंह की धर्मपत्नी और कछवाहा सरदार बांकावत आनन्दसिंह की पुत्री थीं. इनका जन्म लगभग सं० १७६० में हुआ था. बांकावत की पुत्री होने के कारण इन्हें बांकावतीजी भी कहते हैं. यों तो इनने अपने आपको स्वरचनाओं में ब्रजदासी के नाम से अभिहित किया है, पर कतिपय पद्यों में 'बांकी' छाप भी पाई जाती है. जैसा कि आगामी पंक्तियों से फलित होगा. इनका पाणिग्रहण संस्कार वृन्दावन में महाराजा राजसिंह के साथ सं० १७७८ में हुआ था जैसा कि वह स्वयं स्वकृति 'सालव जुद्ध' में इन शब्दों में स्वीकार करती है :
वृन्दावन के मांहि जहां चैनघाट की ठौर । पांनिग्रहन तिहिं ठां भयौ बांधि रीति सौं मोर ।।१६२।। मुष्य कृपा गुरु जानिये बहुरचौं पुरी प्रभाव । पांनिग्रहन सुभ ठौर भी सु भौं सबै सुभाय ।।१६३।।
सालव जुद्ध, स्व-संग्रहस्थ प्रति से उद्धृत
हरिजन हरिकौं भजत है रसनां नाम महेस ।
श्रवन कथा सतसंग मैं निज तन नम्र बिसेस ।।२।। अन्त भाग
कुल मारग जो वेद गति चलिये सोई चाल । झूठि-भूठि तजि जगत की तबै कृपाल गुपाल ।।११७।। पंच नृपनकी यह कथा सूछिम कही बनाय । श्रीनगधर उर धारिये सो है सीस सहाय ।।११।।
।। इति श्री पंचम राजा अधम संपूर्ण । संवत १८८७ मागसर सुदि ३ चन्द्रबासरे लिपिकृतं स्वेताम्बर नानिंग ।। शुभं भवतु ।। श्री ।। प्रतिलिपिकार नानिंग स्वयं कवि और सुलेखक थे. इनके द्वारा प्रतिलिपित साहित्य किशनगढ के राजकीय सरस्वती भण्डार में विद्यमान है.
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