Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीसुशीलकुमार दिवाकर एम० ए०, बी० काम०, एल-एल० बी० काव्य में अध्यात्म
जबकि पश्चिमी सभ्यता ने अपनी उन्नति की नींव और कलश पर जड़-वादिता का संस्कार डाला है, तब भारत ने भौतिकता की दृष्टि से पीछे होते हुए भी अध्यात्म की निरन्तर साधना की है. इस आध्यात्मिकता में ही जीवन की महानता और अमूल्यत्व निहित है. भारत-मन्दिर में आध्यात्मिकता का चित्ताकर्षक गीत निरन्तर गाया जा रहा है. यह भारतीय अध्यात्म का ही प्रभाव है कि हमने पाश्चात्य विद्वानों के लिए पूर्ण-रूपेण अज्ञात आत्मा के अनंत गुणों का पता पाया है. आत्मा जो अदृश्य और केवल अनुभवगम्य है, भारतीय महर्षियों द्वारा देखी गई और पहचानी गई. जब पाश्चात्य दार्शनिक कार्लाइल सदृश विद्वान यह कहकर सन्तुष्ट हो गये कि 'मैं क्या हूं' इसकी चिंता छोड़कर 'मुझे क्या करना है' पर ही विचार करना चाहिये, तब भारतीय महात्माओं और सर्वज्ञों ने आत्मा का पता लगाया. उनके इस आत्मदर्शन में उनका त्याग, ज्ञान, नि:स्पृहता, ध्यान, तप, वैराग्य, अपरिग्रह, अहिंसा आदि पारस्परिक पर्यायवाची, सद्गुणों का अवस्थित रहना अत्यन्त महत्त्व का है. उन महावीर, बुद्ध, प्रभृति महान् व्यक्तियों के समतादायक शुभ मार्ग को संस्कृत, पाली और प्राकृत के आचार्यों ने जनता तक पहुंचाने का सफल प्रयत्न किया. भारतीय विद्वानों ने अपने विशुद्ध जीवन के आधार पर सफल लेखनी द्वारा लोकप्रिय भाषा में जनरंजन और जनहित के लिए असंख्य काव्यों की रचना की. न केवल रचना की. वरन् उन गीतों को गाकर जन-जन की हुत्तन्त्री पर स्पष्ट प्रभाव अंकित कर पवित्रता की ओर उन्मुख कर दिया. भारतीय जीवन में 'सन्तोष धन' की आवाज उन्हीं विद्वानों ने बुलन्द की. महाराष्ट्र के कवियों ने तानाजी मालसुरे की सेना में वीर-काव्य गाकर जिस प्रकार ओज ओर जोश भरा, भूषण के रस से प्रभावित छत्रसाल और शिवाजी ने जिस प्रकार उत्साह पाया, उससे कितना ही अधिक तत्कालीन एवं चिरस्थायी प्रभाव कवियों का भारतीय जीवन की दार्शनिकता पर पड़ा. लोकभाषा हिन्दी के कवियों ने भी इस ओर कम प्रयत्न नहीं किये. तुलसी ने जगमोह त्याग, काव्यकला की उपासना कर अध्यात्म की ओर ही अपनी प्रतिभा-शकट को मोड़ा. यह बात तो कथानक के अनुसार ही हो गई कि राम का चरित्रगान करने के लिए, उन्हें 'मानस' में यदाकदा शृंगार का भी आश्रय, 'तिरछे करि नयन दे सैन जिन्हें समझाय चली, मुसकाय चली' आदि के रूप में लेना पड़ा. कविवर बनारसीदास के बारे में उनके 'अर्धकथानक' काव्य से पता लगता है कि वे पहले शृंगारी कवि थे, परन्तु बाद में वे चेते और जब उन्हें यह आभास हुआ कि शृंगार-काव्य से न केवल अपना अहित कर रहे हैं वरन् आगे आने वाली अगण्य पीढियों को स्खलित मार्ग दिखा रहे हैं, तो उन्होंने अपना समस्त शृंगारकाव्य गोमती नदी में डुबाकर सन्तोष की सांस ली. देखिये
एक दिवस मित्रन्ह के साथ, नौकृत पोथी लीना हाथ, नींद गोमती के बिच आइ, पूल के ऊपरि बैठे जाइ ।
IVIN
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