Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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पं. कुन्दनलाल जैन : आयुर्वेद का उद्देश्य संयमसाधना : ८६६ ने निम्नलिखित प्रार्थना की-“हे प्रभो, पहले दूसरे और तीसरे काल में इस भरत क्षेत्र में भोगभूमि थी. लोग परस्पर एक दूसरे को अत्यन्त स्नेह से देखते थे, उनमें ईष्र्या द्वेष नहीं था. अपने पुण्य के फल से प्राप्त समस्त इष्ट भोगों को भोग कर नियत समय पर आयु पूर्ण कर स्वर्ग में देवगति के सुख भोगने को जाते थे. भोगभूमि समाप्त होकर कर्मभूमि आई. इसमें भी पुण्यात्मा चरमशरीरी उत्तम देहवाले भगवान् तीर्थंकर दीर्घ आयु के धारक होते हैं. परन्तु अधिकतर लोग विष शस्त्रादि से घात योग्य शरीर वाले होते हैं. उनको वात पित्त कफ की हीनाधिकता से महान् बीमारियां उत्पन्न होती हैं. उन्हें ठण्ड, गरमी वर्षा ऋतु की प्रतिकूलता दुखी करती है. वे लोग अपथ्य आहार-विहार का सेवन करते हैं. इसलिए हे नाथ! हमें इन दुखों से छूटने का उपाय बतलावें'. तब देवाधिदेव परमदेव आदिप्रभु ने कहा- "हे भरतेश्वर ! स्वस्थ के स्वास्थ्य का रक्षण करने और अस्वस्थ के अस्वास्थ्य को मिटाने का उपाय इस प्रकार है-उचित काल में हित, मित आहार-विहार का सेवन करता हुआ तथा क्रोध काम लोभ मोह मान आदि शांति के शत्रुओं से निरंतर बचता हुआ जो व्यक्ति अपना जीवन व्यतीत करता है तथा समयसमय पर सतत स्वास्थ्य की रक्षा के लिए रसायन द्रव्यों को शरीर की शुद्धिपूर्वक उचित समय में सेवन करता है, वह कभी बीमारियों या असामयिक वार्धक्य आदि के वशीभूत नहीं होता. यह स्वस्थ का स्यास्थ्यरक्षण है. यदि कर्मयोग से, भूल आदि निमित्त के वश रोग आ ही जाएँ तो निदानज्ञ विद्वान् से वात पित्त कफादिक में, जिसकी हीनाधिकता से रोग उत्पन्न हुआ हो, उसको समझ कर हीन को बढ़ाने वाले शुद्ध द्रव्यों के सेवन द्वारा उचित परिमाण में बढ़ाना बृहण कहलाता है. तथा यदि दोष बढ़े हुए हों तो उन्हें कम करने वाले द्रव्यों को उचित मात्रा में सेवन कर बढ़े हुए दोषों को कम करना कर्षण चिकित्सा कहलाती है. इस प्रकार उभयप्रकारी चिकित्सा द्वारा स्वास्थ्य प्राप्त करना चाहिए. तभी शरीर संयमसाधना के उपयुक्त होगा और संयम की आराधना द्वारा अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष की सिद्धि होगी." आदिनाथ प्रभु की यही दिव्यध्वनि आयुर्वेदप्रणयन का मूल बनी और इसी आधार पर पूज्यपाद, समंतभद्र, अकलंक आदि प्राचीन जैनाचार्यों ने आयुर्वेद संबंधी अनेक रस-ग्रंथ लिखे. रस और उसमें भी खासकर खल्वी रसायन आयुर्वेद को जैनाचार्यों की महान् देन है. श्री हर्षगणि आदि द्वारा लिखित "योगचिन्तामणि' सरीखा महान् ग्रन्थ तो सस्ते आशुरोगापहारी सुलभ योगों का भण्डार है और आज के युग की अर्थहीन मध्यवित्त जनता के लिए चिन्तामणिरत्न का काम देता है. इस प्रकार जैनागम के महान् आचार्यों ने आयुर्वेद की सेवा विशुद्ध लोककल्याण की भावना के साथ स्वस्थ शरीर द्वारा संयमपालन की दृष्टि से की है.
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