Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्री वरलाल नाहटा
एक जैनेतर संत कृत जम्बूचरित्र
भारत में अनेक धर्म-सम्प्रदाय हैं और विचारभेद के कारण ऐसा होना अनिवार्य भी है. पर इसका एक दुष्परिणाम हुआ कि हमारी दृष्टि बहुत ही संकुचित हो गई. एक दूसरे की अच्छी बातें ग्रहण करना तो दूर की बात पर सांप्रदायिक विद्वेष-भावना के कारण दूसरे संप्रदायों के दोष ढूढना और उन्हें प्रचारित करना ही अपने संप्रदाय के महत्त्व बढाने का आवश्यक अंग मान लिया गया है. पुराणों आदि में जैन धर्म सम्बन्धी जो विवरण मिलते हैं उनसे यह भलीभांति स्पष्ट है कि जैनधर्म हजारों वर्षों से भारत में प्रचारित होने पर भी और उसके प्रचारक व अनुयायी अनेक विशिष्ट व्यक्ति हुए उन तीर्थकरों, आचार्यों व जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का उल्लेख तक पुराणादि ग्रंथों में नहीं किया गया. इतना ही नहीं, महत्त्व के सिद्धान्तों को भी गलत रूप में बतलाया गया. मध्यकाल में अनेक संत और भक्त सम्प्रदायों का उद्भव हुआ और उन्होंने भक्ति वैराग्य और अध्यात्म का प्रचार करने के साथ-साथ समाज के अनेक दोषों का निराकरण करने का भी कदम उठाया. कबीर आदि ऐसे ही संत थे जिनका प्रभाव परवर्ती अनेक धर्म-संप्रदायों पर दिखाई पड़ता है. वैसे वे काफी उदार रहे हैं और जैनधर्म के कई अहिंसादिसिद्धान्तों को अच्छे रूप में अपनाया भी, पर वे भी सांप्रदायिक दृष्टि से ऊपर नहीं उठ सके अत: जैनधर्म के सम्बन्ध में उनके विचार जो भी थोड़े बहुत व्यक्त हुए वे कटाक्ष व हीन भाव के सूचक हैं. रज्जब आदि कई संत कवियों ने जैन जंजाल आदि रचनाएं की हैं, उनसे यह स्पष्ट है. राजस्थान में निरंजनी, दादूपंथी, रामस्नेही, आदि संत संप्रदायों का गत तीन चार सौ वर्षों में अच्छा प्रभाव रहा है और जैनधर्म का भी इसी समय वहां काफी प्रभाव था. दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय अच्छे रूप में प्रचारित रहे. कई जैनों का उन संत-संप्रदायों के संतों आदि से परिचय व सम्बन्ध भी रहा है. फिर भी जैसा पारस्परिक सद्भाव रहना चाहिए था, नहीं रहा. इसका प्रमुख कारण सांप्रदायिक मनोवृत्ति ही है. जैनकथाए कई बहुत प्रसिद्ध रही हैं और उन्होंने जैनेतर संतों को भी आकर्षित किया है. इनमें से एक कथा जम्बू स्वामी की है. शील की महिमा प्रचारित करने के लिए उस कथा को दादूपंथी संत "तुरसी" ने 'जम्बूसर प्रसंग' के नाम से हिन्दी में पद्यबद्ध किया है. प्रस्तुत काव्य की कई हस्तलिखित प्रतियां मेरे अवलोकन में आई, उनमें से एक प्रति की प्रतिलिपि तो जयपुर के उदारमना संत मंगलदास जी ने अपने हाथ से करके मुझे कुछ वर्ष पूर्व भेजी थी. उसके बाद दो और प्रतियां भी जम्बूसर प्रसंग की मिलीं. उन तीनों प्रतियों के आधार से संपादित करके यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है.
अंतिम केवली जम्बू स्वामी की कथा जैन समाज में बहुत प्रसिद्ध है. उनके संबंध में संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, गुजराती में अनेकों गद्य-पद्यमय रचनाए प्राप्त हैं. जहाँ तक मेरी जानकारी है, उनके चरित्र के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन और उपकथाओं के साथ वर्णन वसुदेव हिण्डी के प्रारम्भ में मिलता है, जो पांचवीं शताब्दी की रचना है. तदनन्तर आचार्य श्री हेमचन्द्र सुरि ने परिशिष्ट पर्व में जम्बू चरित्र विस्तार से लिखा है और उसके बाद तो लगभग २०-२५ रचनाएं दिगम्बर, श्वेताम्बर दोनों संप्रदायों में लिखी गई जिनमें से कुछ प्रकाशित भी हो चुकी हैं. महापुरुष जम्बू
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