Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain Ed
पुरुषोमलाल मेनारिया राजस्थानी साहित्य में जैन साहित्यकारों का स्थान ७८५
और शृंगार भी डिंगल कवियों के प्रिय विषय रहे हैं. वीरता श्रृंगार और भक्ति की त्रिवेणी में स्नान कर मध्यकालीन राजस्थानी शूरवीर अनुपम वीरता और त्याग भावना का परिचय दे सके हैं. डिंगल काव्यों से हमें स्वाधीनता, स्वाभिमान और आत्मरक्षा का अमर संदेश प्राप्त होता है.
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डिंगल साहित्य की उत्कृष्टता सभी विद्वानों ने स्वीकार की है, किन्तु डिंगल' शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रकट किए गए मतों में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है. इनमें से प्रायः सभी मत अनुमानाधित हैं.
डिंगल रचनाओं में शिवदास चारण (१४७० वि० १४१४ ई०) कृत 'अचलदास खीची री वचनिका' दुरसा जी आढ़ा (१५६२-१७१२ वि० १५३६-१६५६ ई०) की विरुद्ध छितरी और मुक्तक गीत, ईसरदास जी बारह (१५९५ वि० १६७६ वि० सं०) कृत 'हाला झाला रा कुंडलिया और हरिरस, महाराज पृथ्वीराज राठौड़ (वि० सं० १६०६१६५७, १५५० से १६०१ ई०) कृत 'वेलि क्रिसन रुकमणी री' 'सांयां जी भूला ( १६३२ से १७०३ वि० सं०) कृत 'रुकमिणीहरण' व 'नागदमण' कविया करणीदान जी ( रचना काल संवत् १८०० लगभग) कृत 'सूरजप्रकाश' कविराजा वांकीदास (सं० १८२८ से १८९०) कूल अनेक लघुकाव्य, महाकवि सूरजमल मिश्रण (१८७२ से १९२० वि० सं०) कृत पीरसतसई, केसरीसिंह बारहठ (१९२९ से १९२० वि० सं०) कुल स्फुट पथ और नानुदान महियारिया (वर्तमान) कृत 'वीर सतसई विशेष उल्लेखनीय हैं.
पिंगल-साहित्य
पिंगल का अर्थ छन्दशास्त्र होता है. राजस्थानी पिंगल साहित्य से तात्पर्य अनेक विद्वानों ने ब्रजभाषा लिया है किन्तु पिंगल का अर्थ ब्रजभाषा किसी भी कोष में उपलब्ध नहीं होता. राजस्थानी पिंगल साहित्य से तात्पर्य मुख्यतः शौरसेनी प्रभावित राजस्थानी काव्यों के उन रूपों से है जिनकी रचनाएं परम्परागत छन्दों में हुई हैं. शौरसेनी अथवा व्रजभाषा का प्रभाव अनेक राजस्थानी काव्यों पर न्यूनाधिक मात्रा में उपलब्ध होता है. राजस्थानी पिंगल - रचनाओं में महाकवि चन्द कृत 'पृथ्वीराज रासो [इसकी प्राचीनतम प्रति सं० १६६४ में लिखित उपलब्ध हुई है और राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के ग्रंथागार में सुरक्षित है ], नरहरिदास बारहठ [वि० सं० १६४८ से १७३३] कृत अवतारचरित्र, महाराजा बहादुरसिंह, विवानगढ़ [शा० का० १७४६-१७८२ वि० सं०] कृत मुक्तक छन्द, गणेशपुरी [ज० सं०१००३] कृत 'वीर विनोद' [महाभारतमत प्रसंग पर आधारित] महाराजा प्रतापसिंह, जयपुर [वि० १०२१-१०६०] महाराणा जवानसिंह उदयपुर [वि० १८५७-१६६५ ] राजकुमारी सुन्दरकुंवरी, किशनगढ़ [वि० सं० १७६१-१८५३] की रचनाएं और स्वरूपदास कृत 'पाण्डव यशेन्दु चन्द्रिका [२०वीं सदी] महत्त्वपूर्ण हैं.
पौराणिक एवं भक्ति साहित्य
राजस्थानी भाषा में पुराण-ग्रन्थों पर आधारित साहित्य भी विशाल परिमाण में लिखा गया है. इस प्रकार का साहित्य पद्य के साथ ही गद्य में भी प्राप्त होता है इसलिए विशेष महत्त्वपूर्ण है. राजस्थानी पौराणिक साहित्य में राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा आदि के साथ ही, हरिश्चन्द्र, उषा, अनिरुद्ध के चरित्रों का विस्तृत निरूपण हुआ है. साथ ही ब्रह्माण्डपुराण, पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत और सूर्यपुराण के टीका युक्त राजस्थानी अनुवाद भी मिलते हैं. पौराणिक साहित्य में सोढ़ी नाथी [अमरकोट] कृत बालचरित्र [सं० १७३१] और कंसलीला [सं० १७३१] सम्मन बाई कविया [ अलवर ] कृत कृष्ण बाल लीला, भीमकवि कृत हरि लीला [र० का० सं०१५४३] तथा श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण और विष्णुपुराण सम्बन्धी रचनाएं उल्लेखनीय है.
१. डा० हीरालाल माहेश्वरी, राजस्थानी भाषा और साहित्य, आधुनिक पुस्तक भवन ३०-३१. कल कार स्ट्रीट, कलकत्ता ७, पृ०६-१७
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