Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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प्रो० देवेन्द्रकुमार जैन : अपभ्रंश जैन-साहित्य : ८०० ६३००० श्लोक कहा जाता है. इसकी कुछ सन्धियों में २६ कडवक हैं. जैन शास्त्रों में त्रेसठ शलाकापुरुषों का जीवनचरित्र लिखने की एक परम्परा ही है. शीलाचार्य का महापुरुषचरित प्राकृत भाषा में निबद्ध है. इस महापुराण का आधार आचार्य जिनसेन (सं० ७८३ के लगभग) कृत आदिपुराण है. इसी परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र विरचित त्रिषष्ठिशलाकापुरुष-चरित्र प्राप्त होता है. साहित्यिक दृष्टि से महापुराण का अत्यन्त महत्त्व है. इसमें स्थान-स्थान पर कवित्वपूर्ण वर्णन, मधुर संवाद और गीतों की सुकोमल लड़ियां व्याप्त दिखाई देती हैं. महाकवि ने इन गीतों को 'धवलगीत' की संज्ञा दी है. अपभ्रंश साहित्य में इस कोटि का अन्य कोई ग्रंथ नहीं है. भाषा पूर्ण साहित्यिक है. स्वयम्भू की भाषा से पुष्पदन्त की भाषा अधिक परिमार्जित, सुष्ठु और प्रौढ़ है. भाषा-साहित्य की दृष्टि से भी यह अधिक मूल्यवान् है. इसके वर्णन इतने सुन्दर हैं कि पढ़ते ही मुग्ध हो आते हैं. उपमाओं की तो कवि ऐसी झड़ी लगा देता है कि एक से एक अधिक सुन्दर और सटीक प्रतीत होती है, भाषा की स्वाभाविकता और-निसर्गसिद्ध वर्णन अनुपमेय हैं. कहीं-कहीं उच्च कोटि के साहित्यिक गीत भी दृष्टिगत होते हैं. वर्णन अत्यन्त सुन्दर, सजीव और सटीक है. भविसयत्तकहा--प्रसिद्ध कवि धनपाल की यह एक मात्र रचना है. इसका समय दसवीं शताब्दी कहा जाता है. इसके दूसरे नाम भविसयतकहा या सुयपंचमीकहा (श्रुतपंचमीकथा) हैं. इसमें कार्तिक शुक्ला पंचमी (ज्ञानपंचमी) के फलवर्णन स्वरूप भविष्यदत्त की कथा का वर्णन है. आधुनिक युग में संस्कृत प्राकृत व्याकरण के अध्ययन, मनन तथा अनुसंधान के समय डा० पिशेल को (१८८६ के लगभग) पता लगा कि अपभ्रंश भाषा का भी कोई व्याकरण है. उन्होंने अपभ्रंश के व्याकरण का अध्ययन कर 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' का भी सम्पादन किया. परन्तु साहित्य का पता लगाने पर भी जब उन्हें कुछ प्राप्त नहीं हुआ तब अपभ्रंश के सम्बन्ध में उनकी यह मान्यता बन गई कि इस भाषा का सम्बन्ध लोक-जीवन से नहीं रहा, यह रूढ़ साहित्यिक भाषा मात्र थी. परन्तु १६१४ ई० मार्च में जर्मन विद्वान् प्रो० हरमन जेकोबी (Jacobi of Bonn Germany) ने भारत-यात्रा की और भ्रमणकाल में अहमदाबाद में किसी वैश्य के पास उक्त रचना प्राप्त कर हर्ष से पुलकित हो उठे. स्वदेश लौटकर उन्होंने बड़े मनोयोग पूर्वक उसका संपादन किया और अपभ्रंश भाषा की महत्ता प्रदर्शित की. इसका महत्त्व है कि यह अपभ्रश का प्रथम प्रकाशित बृहत्काय ग्रंथ है. इसमें बाईस सन्धियां हैं. डॉ० जेकोबी ने हरिभद्र के नेमिनाथचरित से भविसयतकहा की भाषा की तुलना की है. धनपाल की भाषा में देशीपन और लचक है. कवि ने इस कथा को 'बिहि खंडहिं बावीसहि सन्धिहि' (पृ. १४८) कहकर दो भागों में विभक्त कही है. परन्तु डा० हर्मन जेकोबी इसे तीन भागों में मानते हैं, जो उचित ही है. अपभ्रंश कथा-काव्यों में भविसयत्तकहा का विशिष्ट स्थान है. इसमें वणित भविष्यदत्त की कहानी करुण और यथार्थ है. घटनाओं और पात्रों का चित्रण सहृदयता के साथ किया गया है. घटनाओं में कार्य-कारण की संयोजना पूरी तरह से मिलती है. अवान्तर कथा में भी संतुलन है. अवान्तर कथा मुख्यकथा को गतिशील बनाने में सहायक है. इसके साथ ही घटनायें स्वाभाविक और प्रेमानुभूति से अतिरंजित हैं. स्थान-स्थान पर उनका सूक्ष्म विश्लेषण प्राप्त होता है. समूचे रूप में कथा स्वाभाविक और संवेदनीय है. अनुभूतियों की गहनता पूरी रचना में व्याप्त है. वह मार्मिक भी है. इसीलिए रसात्मकता से ओतप्रोत और स्पृहणीय है. पउमसिरीचरिउ :-दिव्यदृष्टि कवि धाहिल की यह चार संधियों की अकेली रचना उपलब्ध है. इस चरितकाव्य का रचनाकाल ११ वीं सदी का मध्यभाग कहा जा सकता है. इसमें पद्मश्री का जीवन-चरित वणित है. इसकी कथावस्तु का आधार पारिवारिक घटनाएँ हैं. दो अलौकिक घटनाओं और अवान्तर कथाओं से इसकी वस्तु-योजना बनी है. फिर भी कथावस्तु स्वाभाविक है. इस पर सामाजिक स्थिति की पूरी छाप है. जीवन की व्यावहारिकता मानो इस काव्य में सजीव हो उठी है. रचना का उद्देश्य कथा के माध्यम से धर्म की ओर प्रेरित करना है. करकंडुचरिउ :-मुनि कनकामर की यह प्रसिद्ध रचना है. मुख्य रूप से यह रोमांटिक चरितकाव्य है. इसमें दस
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