Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि कान्तिसागर : अजमेर - समीपवर्ती क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८२७ भिणाय में भी कई ग्रंथ लिखे गये मिले हैं जिनका उल्लेख निबंध - विस्तारभय से यहां नहीं कर सका हूं, विशिष्ट नवोपलब्ध साहित्य और साहित्कारों का संक्षेप में परिचय इस प्रकार है :
आचार्य श्री जिनरंगसूरिजी — यह खरतरगच्छ के प्रभावशाली आचार्य थे. इनका जन्म राजलदेसर में हुआ, पर साहित्यिक दृष्टि से किशनगढ़ और अजमेर से घनिष्ठ सम्पर्क रहा है, बल्कि कहना चाहिए किशनगढ़ तो इनकी धार्मिक और सांस्कृतिक साधना का केन्द्र ही था। वर्षों वे वहाँ रहे और अपनी चारित्रिक सौरभ से जन-मानस को प्रभावित करते रहे. आज भी किशनगढ़ में इनका उपाश्रय विद्यमान है जिसमें हस्तलिखित प्रतियों का अच्छा संग्रह है, इसकी तालिका बाफणा परिवार में है. वर्षों से ज्ञान भंडार न तो खुला है और न कभी किसी ने यहाँ तक कि संरक्षक ने भी- - देखने का कष्ट किया है. नहीं कहा जा सकता है कि वह आज ग्रंथों की दृष्टि से समृद्ध भी है या नहीं ?
इन आचार्य के समय में किसी बात को लेकर आपसी वैमनस्य फैल गया था जिसका संतोषकारक समाधान अजमेर में हुआ और वहीं पर इनको भट्टारक पद से अभिहित किया गया. इसमें खरतरगच्छीय मुनि रत्नसोम का प्रमुख हाथ रहा. यद्यपि समझौता अधिक समय तक स्थायी नहीं रह सका. कहा जाता है कि अजमेर के तात्कालिक शासन ने इन्हें एक आज्ञापत्र प्रदान किया था कि इनकी मान्यता ७ प्रान्तों में बनी रहे.
यह अच्छे कवि और प्रभावसम्पन्न वाग्मी थे. इनकी 'रंग बहुत्तरी' प्रबोध बावनी ( रचनाकाल सं० १७३१ मृगशीर्ष शुक्ल २ गुरुवार) नवतत्व बालावबोध एवम् स्तुतिपरक रचनायें उपलब्ध हैं. दो रचनाओं का सम्बन्ध किशनगढ़ से रहा है. सौभाग्य पंचमी चौपाई का प्रणयन सं० १७३८ में किशनगढ़ में किया गया था जिसका विवरण 'जैनगुर्जर कविओ' में दिया गया है. यहां पर इनकी एक अज्ञात और अन्यत्र अनुल्लिखित कृति का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है जिसका परिगुम्फन सं० १७३७ माह शुक्ला ५ गुरुवार को किशनगढ़ में हुआ था. इस की मूलप्रति मेरे निजी संग्रह में सुरक्षित है
धर्मदत्त चुतः पदी
आदिभाग
अन्त भाग
Jain Exucation temation
श्रीजिनाय नमः
श्री आदीसर आदि जिन आदि सकल अवतार | विघन हरण वांछित करण प्रणमुं प्रभु पद सार ॥ १ ॥ श्रीखरतरगच्छ श्रीजिनदत्तजी युगप्रधान पद धार पंचनदी साधी बाधा घणी कीरति करि विस्तार ॥ श्री जिनकुलसूरीसर मन परत घर नेह अटवी पांणी पावइ आविनइ अतिशय देषिउ एह || पट्टानुक्रम तेहनइ देहनइ श्रीजिनचंद्रसूरिंद | पातिशाह अकबर प्रतिबोधीयो महिमावंत मुणिंद ॥ तसु पाटइ वाटइ सुरतरु समउ श्रीजिनसिंहसूरीस । मनवंछित फलदायक वायके सेवीजइ निसदीस ॥ पाट प्रभाकर साकर सारसी मीठी जेहनी वाणि । श्रीजिनराजमूरीसर जांणीय पंडित चतुर सुजाण । तसु सीसई जिनरंगइ रंगसुं कीधउ चरित मति सार । सुणतां भणतां पहुइज्यो सदा श्रीसंघनइ जयकार |
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