Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि कान्तिसागर : अजमेर-समीपवर्ती-क्षेत्र के कतिपय उपेक्षित हिन्दी साहित्यकार : ८२६
सुरक्षित है. इसमें कृष्णसिंहजी से लगाकर यज्ञनारायणसिंहजी तक के महाराजाओं के पदों का सुंदर संकलन है. महाराजा रूपसिंहजी के पूर्ववर्तीय नरेशों के नाम के आगे स्थान रिक्त है. इससे ज्ञात होता है कि इनकी रचनाएं संग्रहीत नहीं हो सकी हैं, पर वे कवि अवश्य रहे होंगे. कम से कम अपने इष्टदेव की स्तुति तो रची ही होगी ! इस संकलन में महाराजा रूपसिंहजी के कृष्णभक्तिपरक ५ पद सुरक्षित हैं. आगे छूटे हुए स्थान से कल्पना करनी पड़ती है कि और भी पद रहे होंगे जिन्हें संग्रहकार न लिख सका था. सूचित नरेश के पद भले ही साहित्यिक दृष्टि से विशेष महत्त्व न रखते हों, पर रचना की शृंखला की एक कडी तो हैं ही. एक पद उद्धत किया जा रहा है
मैं कैसे आऊं दामिनि मोहि डरावत जब-जब गवन करों दिशि प्रीतम चमकत चक्र चलावत बे चातुर आतुर अति सजनी रजनी यों बिरमावत गावत गवन पवन चलि चंचल अंचल रहत न पावत सुनि पिय बचन चतुर चल आये भामिनि सों मन भावत
रूपसिंह प्रभु नगधर नागर मिलि मलार सुर गावत महाराजा मानसिंह जी [राज्य काल-१७१५-१७६३] —ये स्वाभिमानी बीरपुंगव और पूर्वजों के प्रति पूर्ण आस्थावान् थे. भगवद्भक्ति के साथ परम व्यवहारकुशल और विद्वज्जनों के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखते थे. इन्हीं की प्रेरणा से कविवर वृंद ने सं० १७६२ में “व च नि का" की रचना की थी. इनको स्वतन्त्र रचना उपलब्ध नहीं है, पर १०० से अधिक स्फुट पद और ख्याल इन पंक्तियों के लेखक के संग्रह में सुरक्षित हैं. कृष्णभक्तिमूलक गेय पद-साहित्य से पता चलता है, इन्हें साहित्य से गम्भीर अनुराग था, काव्यगत सौंदर्य इस बात का परिचायक है. लाक्षणिक ग्रंथों के अतिरिक्त अपने सम्प्रदाय के सूक्ष्म सिद्धांतों से भी अभिज्ञ थे. कहीं-कहीं पदों में सिद्धांतों की चर्चा है. यह कहना व्यर्थ है कि ये परम संगीतज्ञ भी थे. राजस्थानी और व्रज भाषाओं पर इनका समान अधिकार था. राजस्थान में प्रचलित लोकगीतों की देशियों का पदों में आकस्मिक रूप से अच्छा सा संग्रह हो गया है. जैसा कि ऊपर कहा गया है कि इन्हें पूर्वगौरव का बड़ा ख्याल रहता था. पदसंग्रह में भक्तिमूलक पदों का धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्य तो है ही, पर सबसे बड़ा आवश्यक अंश है.-वल्लभाचार्य और उनके परवर्ती आचार्यों की ऐतिहासिक स्तुतियां. इनका किस घराने से सम्बन्ध था, वल्लभाचार्य की भारत में कहां-कहां कौन-सी शाखाएं हैं और उनकी पट्टपरम्परा क्या रही है आदि बातों का विस्तार इतिहास के साधन की ओर संकेत करता है. यहाँ प्रसंगवश सूचित कर देना आवश्यक जान पड़ता है कि महाराजा मानसिंह के समय में किशनगढ की सांस्कृतिक चेतना प्रबुद्ध व्यक्तियों को आकृष्ट किये हुए थी, बड़े-बड़े जैन विद्वान् उन दिनों यहाँ पर साहित्यिक रचनाएं किया करते थे. उपध्याय मेघविजय जी का तो यह सारस्वत साधना-स्थान ही था. राजसिंह जी तक बह रहे. मानसिंहजी से इनका वैयक्तिक सम्बन्ध था जैसा कि तत्रस्थ राजकीय चित्र से विदित होता है. महाराजा राजसिंह- [राज्य काल १७६३-१८०५] ये महाराजा मानसिंह के पुत्र और सुप्रसिद्ध राजर्षि सावंतसिंहजीनागरीदास जी के पिता थे. अभी तक इनकी तीन-बाहुविलास, राजप्रकाश और रसपायनायक रचनाओं का पता लगा है, साहित्यक इतिहासों में इन्हीं का उल्लेख मिलता है. खोज करने पर इनकी और भी कृतियां उपलब्ध हुई हैं. राजसिंह का जन्म सं०-१७३० पौष सुदि १२ को हुआ था. इनके समय में किसनगढ सभी दृष्टियों से उन्नत और आकर्षण का केन्द्र था. दूर-दूर तक ख्याति थी. इनके कविताकाल पर प्रकाश नहीं पड़ सका है. जिन इतिहासलेखकों ने इनकी कृतियों का संकेत दिया है वे भी इन पर मौन ही हैं. पर यह सच है कि इन्हें कविता से गहरी अभिरुचि थी. इनकी कृतियों का रचना काल भी ज्ञात नहीं है, एक कृति में, जिसका उल्लेख आगे की पंक्तियों में किया गया है, रचनाकाल सं० १७८८ है, पर वह तो इनकी प्रौढावस्था का परिचायक है. मुझे सं० १७६० का एक हस्तलिखित गुटका
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