Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८२६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ श्रध्याय
कितना श्रम किया था. आश्रित कवि और चित्रकारों को प्रोत्साहित कर जो मूल्यवान् सांस्कृतिक ज्योति प्रज्वलित की उसके प्रकाश से आज भी हम प्रकाशित हो रहे हैं. इस नगर की ख्याति हिन्दी साहित्य में केवल संतप्रवर नागरीदासजी-सांवतसिंह के कारण ही रही है, पर अन्वेषण से सिद्ध हो गया है कि वहां की साहित्यिक परम्परा इससे भी प्राचीन और अधिक प्रेरक रही है. नागरीदासजी के पूर्वजों ने जो साहित्यिक साधना की करवाई उसका समुचित मूल्यांकन आजतक हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहासकारों ने नहीं किया है, वह सर्वथा निर्दोष नहीं है जैसा कि 'मध्यकालीन हिन्दी कवयित्रियां" के छत्रकुंबरवाले प्रसंग से प्रमाणित है. नागरीदास का साहित्य 'नागर समुच्चय' में प्रकाशित है, पर शोध करने पर इनकी स्फुट रचना अन्य भी उपलब्ध है. किशनगढ़ के ही एक मुस्लिम विद्वान् श्री फ़ैयाज़ अली सा० ने नागरीदास पर विशद अनुसंधान कर शोध-प्रबंध प्रस्तुत किया है (यद्यपि यह रचना इन पंक्तियों के लेखक की दृष्टि में नहीं आई.)
जैन इतिहास के साधनों से पता चलता है कि किशनगढ़ का जैन दृष्टि से भी कम महत्त्व नहीं है. जब से वह नगर बसा तभी से जैनों का इससे निकट का संबंध रहा है. राजकीय उच्चपदों पर जैन आरूढ़ रहे हैं. इससे भी महत्त्व की बात यह है कि किशनगढ़ का राजकीय सरस्वती भण्डार जैन साहित्य की दृष्टि से बहुत ही समृद्ध है. उपाध्याय मेघविजयजी, आचार्य श्री जिनरंगसूरिजी आदि उद्भट मुनिपुंगवों ने वहां निवास कर न केवल साहित्य साधना ही की, अपितु अपने उच्च विचारों से स्थानीय जन-मानस को भी अनुप्राणित किया, राजकीय परिवार को भी उपकृत किया, यद्यपि वहां का राजपरिवार परम वैष्णव रहा है तथापि वह पर मतसहिष्णु था. जब आचार्यों को विज्ञप्तिपत्र प्रेषित किये जाते थे उनमें राज-परिवार के मुख्य सदस्य के भी हस्ताक्षर अनिवार्य थे.
लोकागच्छीय प्रवृतियों का भी किशनगढ़ केन्द्र रहा है. कई जाचायों के स्वर्गवास आचार्य पद और चातुर्मास हुए हैं जिनका उल्लेख लेखक के 'लोकाशाह परम्परा और उसका अज्ञात साहित्य' नामक निबंध में अन्यत्र किया जा चुका है. आज भी लोंकागच्छ के उपाश्रय स्थानक में अवशिष्ट ज्ञान भंडार है. किसी युग में यहां उनके तीन ज्ञानभंडार थे, पर असावधानी से उनका अभिधानात्मक अस्तित्त्व ही शेष रह गया. जिसे जो कृति प्रति पसन्द आई, वही उठाकर चलता बना, तिजोरियों की चाभी संभालनेवालों की दृष्टि में ज्ञानमूलक सामग्री का महत्त्व ही क्या हो सकता है ?
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अद्यावधि हिन्दी साहित्य के जितने भी इतिहास लिखे गये हैं वे तब तक पूर्ण नहीं कहे जा सकते हो सकते जब तक हिन्दी क्षेत्र से संबद्ध सभी अंचलों का वैज्ञानिक दृष्टि से साहित्यिक सर्वेक्षण न कर लिया जाय. आज हमारे सम्मुख हिन्दी और ग्रंथकारों के विषय में जो भ्रान्तियां हैं इसका कारण भी इसी आंचलिक सर्वेक्षण का अभाव ही है. परिणामस्वरूप कई महत्त्वपूर्ण रचनाएं और रचनाकार आजतक हमारे हिन्दी साहित्य के इतिहास के निर्माताओं की दृष्टि में नहीं आ सके हैं. परम पूज्य उपाध्याय श्री सुखसागरजी महाराज सा० और साहित्यप्रेमी मुनिवर श्री मंगलसागरजी महाराज साहब की छत्रछाया में जयपुर से अजमेर आते हुए आंचलिक साहित्यिक सर्वेक्षण का उथला-सा प्रयास किया तो मुझे कतिपय ऐसे विशिष्ट ग्रंथ और ग्रंथकार मिल गये जो हिन्दी भाषा और साहित्य की दृष्टि से बड़े महत्त्व के प्रमाणित हुए. आज तक किसी भी हिन्दी शोधार्थी की निगाह नहीं गई. सूचित अंचल के जो दो-चार ग्रंथकार — जैसे राजसिंह, ब्रजदासी, नागरीदास आदि सामने आये उनकी रचनाएं भी उपेक्षित रह गईं और इस प्रकार वे सही मूल्यांकन से वंचित रह गये. यहां उन ज्ञात रचनाकारों के अज्ञात ग्रंथों का तथा सर्वथा अज्ञात रचनाकारों के अज्ञात ग्रंथों का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है. ज्ञात कृतिकारों में आचार्य श्री जिनरंगसूरिजी महाराजा राजसिंह, ब्रजदासीबांकावती, विजयकीत्ति का समावेश होता है और अज्ञात रचनाकार हैं महाराजा रूपसिंह महाराजा मानसिंह, महाराजा विडदसिंह, महाराजा कल्याणसिंह, महाराजा पृथ्वीसिंह तत्पुत्र जवानसिंह, महाराजा यज्ञनारायणसिंह, कविवर नानिंग, पंचायण, जसराज भाट और प्रेम या परमसुख.
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जो विज्ञप्ति पत्र किशनगढ़ से प्रेषित किये जाते रहे हैं उनका समावेश स्वतंत्र कृतिकारों में नहीं किया है, केवल उल्लेख मात्र कर दिया है. यहां प्रसंगत: सूचित कर देना आवश्यक जान पड़ता है कि अजमेर समीपवर्ती रूपनगर, मसौदा
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