Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि कन्हैयालाल 'कमल' : आगम साहित्य का पर्यालोचन : ८१७
हो और कम से कम आचार प्रकल्प (निशीथ) का मर्मज्ञ हो तो वह उपाध्याय पद के योग्य होता है.' पांच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण यदि उक्त आध्यात्मिक योग्यता वाला हो और कम से कम दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्र का ज्ञाता हो तो वह आचार्य और उपाध्याय पद के योग्य होता है. आठ वर्ष के दीक्षा पर्यायवाला श्रमण यदि उक्त आध्यात्मिक योग्यता वाला हो और कम से कम स्थानांग समवायांग का ज्ञाता हो तो वह आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर गणि और गणावच्छेदक पद के योग्य होता है.
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निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन करने योग्य वय सामान्यतया जिस श्रमण-श्रमणी के बगल में बाल पैदा होने लगते हैं, वह (श्रमण, श्रमणी) आगमों के अध्ययन योग्य वय वाला माना गया है.
अनुयोगों के अनुसार आगमों का वर्गीकरण अनुयोगों के अनुसार आगमों का चार विभागों में विभाजन किया गया है. यथा-१. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग ३. द्रव्यानुयोग, एवं ४. गणितानुयोग. यह विभाजन इस प्रकार हैचरणकरणानुयोग-दशवकालिक, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, आवश्यक, प्रश्नव्याकरण, चउसरणपयन्ना, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान भक्तपरिज्ञा, संस्तारक, गच्छाचार, मरणसमाधि, चन्द्रावेध्यक, पर्यंताराधना, पिंड विशोधि. धर्मकथानुयोग-ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, विपाकश्रुत, निरयावलिका [कप्पिया] कप्पवडंसिया, पुपिफया, पुष्पवुलिका, वह्निदशा, ऋषिभाषित, जम्बूस्वामी अध्ययन, सारावली. द्रव्यानुयोग-प्रज्ञापना, नंदीसूत्र. गणितानुयोग-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, गणिविद्या, योनि प्राभृत, तिथि प्रकीर्णक. श्रागम के दो भेद-मूलतः आगमों के दो विभाग हैं : १. अंग प्रविष्ट और २. अंगबाह्य. जिन आगमों में गणधरों ने तीर्थंकर भगवान् के उपदेश को ग्रथित किया है, उन आगमों को अंगप्रविष्ट कहते हैं. आचारांग आदि बारह अंग अंगप्रविष्ट हैं. द्वादशांगी के अतिरिक्त आगम अंग बाह्य हैं. अङ्गबाह्य के दो भेद-आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त, आवश्यक के ६ भेद हैं-१. सामायिक, २. चतुविशतिस्तव, ३. वंदना, ४. प्रतिक्रमण, ५. कायोत्सर्ग, ६. प्रत्याख्यान.
१. कोई भी श्रमण उक्त आध्यात्मिक योग्यता के विना चाहे वह कितने ही आगमों का ज्ञाता हो-उपाध्याय आदि पदों का अधिकारी
नहीं हो सकता-व्यव० उद्दे० ३. २. उक्त योग्यता से अल्प योग्यता वाला उपाध्याय आचार्य आदि पदों के अयोग्य होता है. ३. उक्त योग्य वय वाले पात्र को निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन न कराना भी एक प्रकार का अपराध है. निशी० उद्द०१६. ४. शेष सभी आगमों में अनुयोगों का मिश्रण है किसी में दो किसी में तीन और किसी में चारों अनुयोगों का मिश्रण है. ५. अंग प्रविष्ट-नंदीसूत्र 'अंग प्रविष्ट' आगमों की सूची है. उसमें बारह अंगों के नाम हैं किन्तु 'प्रविष्ट' शब्द कुछ विशिष्ट अर्थ रखता है. कुछ विद्वानों का यह अभिमत है कि स्थानांग में जिस प्रश्नब्याकरण का उल्लेख है वह विलुप्य हो गया है और उसके स्थान पर वर्तमान प्रश्न व्याकरण जो है वह अंग प्रविष्ट है. इसी प्रकार विधाक, अन्तकृदशा, आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध और समवायांग
का १०० समवाय के पीछे का भाग अंग प्रविष्ट है. ६. उपांग, मूल और सूत्रों के सम्बन्ध में प्रायः ऐसे उल्लेख मिलते हैं कि-अमुक पूर्व में से अमुक आचार्य ने इस आगम को उद्धृत किया
है. चौदह पूर्व दृष्टिवाद के विभाग हैं और दृष्टिवाद बारहवां अंग है किन्तु दृष्टिवाद में से उद्धृत आगमों को अंग प्रविष्ट न मानकर अंग बाह्य मानना विचारणीय अवश्य है.