Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८२२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
उतने ही थे तो--उनके इतने ही पद हों यह कभी संभव नहीं कहा जा सकता. नंदी सूत्र में आगमों के जितने पद लिखे हैं उतने पद नहीं लिखे गये. यदि यह पक्ष मान लिया जाय तो यह प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है. देवधि क्षमाश्रमण के समय कितने पद थे? और जितने पद थे उतने पदों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? उस समय जितने पद थे यदि उनका उल्लेख किया जाता तो इस समय तक कितने पद कम हुए यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता. देवधि क्षमाश्रमण के समय में दृष्टिवाद विलुप्त हो गया था और शेष आगमों के भी कतिपय अंश विलुप्त हो गये थे, इसलिये यह स्पष्ट है कि-नंदी में प्रत्येक अंग के जितने पद माने हैं उतने पद तो देवधि क्षमाश्रमण के समय में नहीं थे. प्रागमों के कतिपय मूल पाठों को मतैक्यता में कुछ बाधायें आगमों की जितनी वाचनाएँ हुई उन सब में प्रमुख वाचनाचार्यों के सामने पाठभेदों और पाठान्तरों को विकट समस्या समुपस्थित हुई थी, विचारविमर्श के पश्चात् भी सम्मिलित सभी श्रुतधर अन्तिम वाचना के अन्त तक एक मत नहीं हो सके. फलस्वरूप सर्वज्ञ-प्रणीत आगमों के मूल पाठों में भी कुछ ऐसे पाठों का अस्तित्व रहा, जिनके कारण प्रबल मत-भेद पैदा हो गये और भ० महावीर का संघ अनेक गच्छ-सम्प्रदायों में विघटित हो गया. परम योगीराज श्री आनन्दधन ने अनंत जिनस्तुति में संघ की वास्तविक स्थिति का नग्न चित्र इन शब्दों में उपस्थित किया है.
गच्छना भेद बहु नयन निहालतां, तत्त्व नी बात करता न लाजे,
उदरभरणादि निज काज करता थकां, मोह नड़िया कलिकाल छाजे, देवधि क्षमाश्रमण के समय में अंग आगमों के जितने अध्ययन उद्देशे शतक आदि थे उतने ही वर्तमान में हैं. केवल प्रश्नव्याकरण में आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है. भगवती और अंतगड के अध्ययन आदि में अवश्य कमी आई है, शेष आगम तो ज्यों के त्यों हैं. निष्कर्ष यह है कि लिपिबद्ध होने के पश्चात् आगम साहित्य का ह्रास इतना नहीं हुआ जितना देवधि क्षमाश्चमण के पूर्व हुआ. यह सिद्ध करने के लिये यहाँ कतिपय ऐतिहासिक प्रमाण प्रस्तुत हैं. १. भद्रबाहु के युग में उत्तर भारत में भयंकर दुष्काल पड़ा. दुर्भिक्ष के कारण जैन संघ इधर-उधर बिखर गया. यह दुष्काल भ० महावीर के निर्वाण के पश्चात् दूसरी शताब्दी में हुआ था, आचार्य स्थूलिभद्र की अध्यक्षता में पाटलिपुत्र में श्रमण-संघ सम्मिलित हुआ. इसमें ग्यारह अंगों का संकलन किया गया. २. पाटलीपुत्र परिषद् के अनन्तर देश में दो बार बारह वर्षों के दुष्काल पड़े. इनमें साधु संस्था और साहित्य का संग्रह छिन्न-भिन्न हो गया. ३. विक्रम के ५०० वर्ष बाद भारत में एक भयंकर दुष्काल पड़ा उसमें फिर जैन धर्म का साहित्य इधर-उधर अस्तव्यस्त हो गया. पाटलीपुत्र और माधुरी वाचना के बाद वल्लभी वाचना का यही समय था, इस दुष्काल में अनेक श्रतधर काल-धर्म को प्राप्त हो गये थे, शेष बचे हुए साधुओं को वीर संवत् १८० में संघ के आग्रह से देवधि क्षमाश्रमण ने निमंत्रित किया और वल्लभी में उनके मुख से-अवशेष रहे हुए खण्डित अथवा अखण्डित आगम-पाठों को संकलित किया. व्याख्या भेद-भ० महावीर के संघ में कुछ ऐसे प्रमुख आचार्य भी हुए जिन्होंने अपनी मान्यतानुसार कतिपय मूल पाठों की व्याख्याएँ की. इससे पाक्षिक एवं सांवत्सरिक पर्व सम्बन्धी मतभेद जैन संघ में इतने दृढ-बद्धमूल हो गये हैं
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