Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय प्राचीनता, विषयों की विविधता, रचना-शैलियों की अनेकरूपता, पद्य के साथ ही गद्य की प्रचुरता और उत्कृष्टता की दृष्टि से विशेष महत्त्व का माना गया है. यथा"भक्ति साहित्य हमें प्रत्येक प्रांत में मिलता है. सभी स्थानों में कवियों ने अपने ढंग से राधा और कृष्ण के गीतों का गान किया है किंतु राजस्थान ने अपने रक्त से जिस साहित्य का निर्माण किया है, वह अद्वितीय है. और उसका कारण भी है-राजस्थानी कवियों ने जीवन की कठोर वास्तविकताओं का स्वयं सामना करते हुए युद्ध के नक्कारे की ध्वनि के साथ स्वभावत: अयत्नज काव्य-गान किया. उन्होंने अपने सामने साक्षात् शिव के ताण्डव की तरह प्रकृति का नृत्य देखा था. क्या आज कोई अपनी कल्पना द्वारा उस कोटि के काव्य की रचना कर सकता है ! राजस्थानीय भाषा के प्रत्येक दोहे में जो वीरत्व की भावना और उमंग है वह राजस्थान की मौलिक निधि है और समस्त भारतवर्ष के गौरव का विषय है.'
-विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर "राजस्थानी वीरों की भाषा है. राजस्थानी-साहित्य वीर-साहित्य है, संसार के साहित्य में उसका निराला स्थान है. वर्तमान काल के भारतीय नवयुवकों के लिए तो उसका अध्ययन अनिवार्य होना चाहिए. इस प्राण भरे साहित्य और उसकी भाषा के उद्धार का कार्य अत्यन्त आवश्यक है. मैं उस दिन की प्रतीक्षा में हूँ जब हिन्दू विश्वविद्यालय में राजस्थानी का सर्वांगपूर्ण विभाग स्थापित हो जाएगा, जिसमें राजस्थानी भाषा और साहित्य की खोज तथा अध्ययन का पूर्ण प्रबन्ध होगा.२
–महामना मदनमोहन मालवीय 'साहित्य की दृष्टि से भी चारणी कृतियाँ बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं. उनका अपना साहित्यिक मूल्य है और कुल मिल कर वे ऐसी साहित्यिक निधियाँ हैं जो अधिक प्रकाश में आने पर आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य में अवश्य ही अत्यन्त महत्त्व का स्थान प्राप्त करेगी.'
--श्री आशुतोष मुकर्जी' डिंगल साहित्य राजस्थानी साहित्य के अन्तर्गत डिंगल एक विशेष शैली है. डिंगल को प्राधान्य देते हुए अनेक विद्वानों ने डिंगल को राजस्थानी काव्य का पर्याय मान लिया है. कतिपय विद्वानों ने डिंगल को राजस्थानी का साहित्यिक रूप कहा है. उक्त दोनों ही मत निराधार हैं. राजस्थानी साहित्य के अन्तर्गत जैन-साहित्य, पौराणिक साहित्य, मौखिक रूप से उपलब्ध होने वाला लोक-साहित्य, पिंगल साहित्य और आधुनिक शैली में लिखे हुए साहित्य का भी समावेश होता है किन्तु इस समस्त साहित्य को डिंगल नहीं कहा जा सकता. इसी प्रकार इन सभी रचनाओं को डिंगल नहीं मानते हुए असाहित्यिक भी नहीं कहा जा सकता. डिंगल इस प्रकार राजस्थानी साहित्य की एक प्रधान शैली ही है जिसको राजस्थान के समस्त भागों में अपनाया गया है. डिंगल का मूल आधार पश्चिमी राजस्थानी अर्थात् मारवाड़ी है और डिंगल में लिखने वाले मुख्यतः चारण हैं. डिंगल ने राजस्थान और राजस्थानी भाषा को एकरूपता प्रदान की है. डिंगल साहित्य में अनेक प्रबन्धकाव्यों के साथ ही पर्याप्त मात्रा में मुक्तकगीत, दूहा, भूलणा, कुण्डलिया, नीसाणी और छप्पय आदि प्राप्त होते हैं. डिंगल गीत गाए नहीं जाते वरन् वैदिक ऋचाओं की भाँति प्रभावशाली शैली में उच्चरित किये जाते हैं. डिंगल गीतों के प्रकार १२० तक प्रकाश में आ चुके हैं. डिंगल कवि कलम चलाने के साथ ही तलवार के भी धनी होते थे. युद्धक्षेत्र में स्वयं लड़ते हुए अपनी वीर रसपूर्ण वाणी से योद्धाओं को कर्तव्यपथ में अग्रसर रहने हेतु प्रोत्साहित करते थे. ओजगुण सम्पन्नता, रस-परिपाक, ऐतिहासिकता तथा प्रभावशालिता की दृष्टि से डिंगल काव्यों का हमारे साहित्य में विशेष स्थान है. वीरता के साथ ही भक्ति
१. (क) मार्न रिम्धू, कलकत्ता, सितम्बर १९३८, जिल्द ६४, पृ० ७१०.
(ख) नागरा प्रचारिणो पत्रिका, वाराणसी भाग ४५, अंक ३, कार्तिक सं०१६६७ पृ० २२८-३० २. ठाकुर रामसिंह जी का अध्यक्षीय अभिभाषण, अखिल भारतीय राजस्थानी साहित्य सम्मेलन, दिनाजपुर सं० २००१ पृ० ११-१२. ३. वहीं
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