Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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पं० बेचरदास दोशी : प्राचीन दिगम्बरीय ग्रन्थों में श्वेताम्बरीय आगमों के अवतरण :: ७६३ प्रस्तुत पाठ कुछ खंडित-सा है, फिर भी विजयोदया के पाठ से बहुत कुछ समानता रखता है. विजयोदयावृत्तिकार आचारांग के और भी उद्धरण देते हैं, जैसे—आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में वत्थेसणा (वस्त्रैषणा) प्रकरण आता है. उसका निर्देश करते हुए विजयोदयावृत्तिकार लिखते हैं-'तथा वत्थेसणाए वुत्तं' इत्यादि. (पृ० ६११) इसी प्रकार पाएसणाए कथितं' कह कर पात्रषणा प्रकरण के पाठ का भी निर्देश करते हैं. आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंधगत 'भावना' अध्ययन का भी 'भावनायां चोक्तम्' कहकर उल्लेख करते हैं. फिर 'तथा चोक्तम् आचारांगे' कह कर 'सुदं मे आउसंतो भगवदा एवमक्खाद' इत्यादि का निर्देश करते हुए विजयोदयाकार आचारांग के अवतरण को दिखाते हैं. उसके बाद 'कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणम् इत्यस्य प्रसाधकम् आचारे विद्यते" ऐसा निर्देश करके अह पुण एवं जाणेज्ज उवातिक ते हेमंते (हंसु) पडिवण्णे से अथ पडिज्जुण्णमुवधि पडिट्ठवेज्जा' इति. यह पाठ कुछ अशुद्ध-सा है. ठीक पाठ आचारांग के आठवें विमोह अध्ययन के चौथे उद्देशक में इस प्रकार है'अह पुण एवं जाणेज्जा उवाइक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवन्ने, अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठवेज्जा.' इस प्रकार विजयोदयावृत्तिकार ने पृ० ६१० से ६१६ तक के मुद्रित पन्नों में कई जगह आचारांग का निर्देश करके कई अवतरण दिये हैं. इसका अर्थ यह है कि वे आचारांग को प्रमाणरूप प्रतिष्ठित मानते थे. इसी से पूर्वपक्ष करके भी इसके अवतरण उन्होंने दिए हैं. इसी प्रकार उक्त पन्नों में सूत्रकृतांग सूत्र के पुंडरीक अध्ययन (द्वि० श्रुत०) तथा उत्तराध्ययन और दशवकालिक के प्राचारप्रणिधि-अध्ययन का नाम लेकर अवतरण दिए हैं. इस टीका में निषेध (निशीथ) तथा कल्प और आवश्यक सूत्र के भी बहुत-से अवतरण विद्यमान हैं. धवला टीका में (षट्खंडागम तीसरा भाग पृ० ३५) 'लोगो वादपदिट्ठिदो त्ति वियाहपण्णत्तिवयणादो' कह कर वियाहपण्णत्ति का प्रामाण्य स्वीकृत किया है. 'लोक वातप्रतिष्ठित है.' ऐसा वियाहपण्णत्ति का वचन है. वर्तमान में प्राप्त वियाहपण्णत्ति में लोक वातप्रतिष्ठित कहा है. यह वर्णन प्रथम शतक के छठे उद्देशक में २२४ वें प्रश्नोत्तर में है. इसके अतिरिक्त धवलाटीका में (षट्खंडागम प्र० भा० पृ० ५४) 'जस्संतियं' इत्यादि पद्य का अवतरण किया है. वह पद्य दशवकालिक सूत्र के नववें अध्ययन की बारहवीं गाथा है. इसी प्रकार विजयोदयावृत्ति में षड् आवश्यक का विचार, दशकल्पविचार, उपधानविचार आदि अनेक चर्चाएँ सचेलक परम्परा के आगमों के अनुसार मिलती हैं. किन्तु सचेलक परम्परा के साथ सम्बन्ध छूट जाने से कहीं-कहीं व्याख्या में अव्यवस्था हो गई है. अचेलक परम्परानुसारी लघुप्रतिक्रमण की लिखित प्रेसकापी मेरे पास है, जो मेरे मित्र श्री नाथूरामजी प्रेमी ने मुझे करीब तीस-चालीस वर्ष पहले दी थी. उसमें 'करेमि भंते ! सूत्र, लोगस्स सूत्र, तस्सुत्तरी सूत्र, अन्नत्थ ऊससिएणं सूत्र, इरियावही सूत्र आदि कई सूत्र बराबर सचेलक परम्परा के सूत्रों के समान हैं. प्रतिक्रमण की यह पद्धति अभी सचेलक परम्परा में प्रचलित है, यही अचेलक परम्परा में भी प्रचलित रही होगी इस लघू प्रतिक्रमण के पाठों से इस अनुमान का समर्थन होता है. अचेलक परम्परा के शास्त्रप्रेमियों ने 'प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की है. उसमें दिया हुआ श्रमणसूत्र का पाठ सचेलक परम्परा के श्रमणसूत्र के पाठ से अत्यधिक साम्य रखता है. उसकी वृत्ति के कर्ता श्रीप्रभाचन्द्र नामक कोई प्राचीन मनीषी हैं. इस पुस्तक में प्रतिक्रमण का मूल पाठ नहीं दिया है. वह दिया गया होता तथा सचेलक परम्परा से तुलना करके प्रकाशित किया गया होता तो अधिक उत्तम होता. अधिक अवतरण देकर लेख को लम्बा बनाने की आवश्यकता नहीं है. इस लधुकाय लेख से भी यह तथ्य पूर्णरूप से समर्थित होता है कि आगमों का न विच्छेद हुआ है, न लोप. समग्र जैन संघ आगमों को आर्ष तया प्रमाणरूप स्वीकार करता था, चाहे वह अचेलकसंघ हो या सचेलकसंघ ! इस तथ्य का दिग्दर्शन कराने का ही यहाँ किंचित् प्रयास किया गया है..
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