Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय जैन संस्कृति और अभिधानचिन्तामणि :-अभिधानचिन्तामणि और धनञ्जनाममाला ऐसे कोष हैं जिनमें संस्कृति के तत्व वर्तमान हैं. अभिधानचिन्तामणि में उत्सर्पण और अवसर्पण काल के साथ तीर्थंकरों के वंश, माता-पिता के नाम, शासनदेवता, उपासक के नाम एवं वर्ण बतलाये गये हैं. कामदेव के पर्यायवाची, द्वादश चक्रवतियों के पर्यायवाची, नौ नारायण और नौ प्रतिनारायणों के पर्यायवाची शब्द संकलित हैं. श्रेणिक और कुमारपाल के पर्यायवाची शब्द भी आये हैं. चालुक्य, राजर्षि, परमार्हत, मृतस्य भोक्ता, धर्मात्मा मारिवारक व्यसनवारक और कुमारपाल ये आठ नाम कुमारपाल के हैं. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के भेद-प्रभेद एवं उनके पर्याय संकलित हैं. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के भेदों और पर्यायों का संकलन जैनागमानुसार किया है. रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा धूमप्रभा, तमःप्रभा, और महातमःप्रभा इन सात नरकों में होने वाली वेदना, एवं इन नरकों के विलों का वर्णन जैन सिद्धान्तानुसार किया गया है. घनोदधिवातवलय, धनवातवलय एवं तनुवातवलय का विवेचन भी इस कोष के नरककाण्ड में विद्यमान है. प्रथम देवाधिदेव काण्ड में तीर्थंकरों के विभिन्न अतिशय, आचार्य, उपाध्याय और मुनि के नामों के विवेचन के अनन्तर यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा एवं समाधि का विवेचन किया है. योग के उक्त अष्टांगों की परिभाषाएँ जैनागमानुसार अंकित की गयी हैं. देवकाण्ड में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के भेद-प्रभेद और उनके पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं. भवनवासी देवों के अन्त में जुड़े हुए कुमार शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है--"कुमारवदेते कान्तदर्शनाः सुकुमाराः मृदुमधुरललितगतयः शृंगाराभिजातरूपविक्रियाः कुमारवच्चोद्ध तवेषभाषाभरणप्रहरणावरणयानवाहनाः कुमारवच्चोल्वणरागाः क्रीडनपराश्चेत्यतः कुमार इत्युच्यन्ते". अर्थात् -ये देव कुमार के समान देखने में सुन्दर, मृदु, मधुर एवं ललित गतिवाले, शृंगार-सुन्दर रूप एवं विकार वाले और कुमार के समान ही उद्धत वेष, भाषा, भूषण, शस्त्र, आभरण, यान तथा वाहन वाले एवं क्रीडापरायण होते हैं. अतएव ये कुमार कहे जाते हैं. देवों के निवास का वर्णन करते हुए कहा है"भवनपतयोऽशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षपिंडायां रत्नप्रभायामूर्ध्वमधश्च योजनसहरीकैकमपहाय जन्माऽऽसादयंति. व्यन्तरास्तस्या एवोपरि यत्परित्यक्तं योजनसहस्र तस्याध ऊर्ध्वञ्च योजनशतमेकैकमपहाय मध्येऽष्टसु योजनशतेषु जन्म प्रतिलभन्ते. ज्योतिष्कास्तु समतलाद् भूभागात् सप्त शतानि नवत्यधिकानि योजनानामारुह्य दशोत्तरयोजनशतपिण्डे नभोदेशे लोकान्तात् किंचिन्न्यूने जन्म गृह्णन्ति. वैमानिका रज्जुमध्य‘मधिरुह्याऽतः सौधर्मादिषु कल्पेषु सर्वार्थसिद्धविमानपर्यवसानेषूत्पद्यन्ते". प्रथम भवनवासी देव एक लाख अस्सी हजार योजन परिमित रत्नप्रभा में एक-एक हजार योजन छोड़कर जन्म ग्रहण करते हैं. व्यन्तरदेव उस रत्नप्रभा के ऊपर छोड़े गये एक हजार योजन के ऊपर तथा नीचे एक-एक सौ योजन छोड़कर बीचवाले आठसौ योजन में जन्म ग्रहण करते हैं. ज्योतिष्क देव समतल भूभाग से सात सौ नब्बे योजन पिण्डवाले तथा लोकान्त से कुछ कम आकाश प्रदेश में जन्म ग्रहण करते हैं और वैमानिक देव डेढ़ रज्जु चढ़ कर सर्वार्थसिद्धि विमान के अन्त तक सौधर्मादि कल्पों में जन्म ग्रहण करते हैं. अपने-अपने नियत स्थानों में उत्पन्न भवनवासी आदि देव लवण समुद्र, मन्दिर, पर्वत, वर्षधर एवं जंगलों में निवास तो करते हैं पर उनकी उत्पत्ति पूर्वोक्त नियत स्थानों के अतिरिक्त अन्य स्थानों में नहीं होती है. अतएव निकाय शब्द का निवासार्थ या सहार्थ में प्रयोग किया गया है. आचार्य हेम ने जैन आचार-व्यवहार की शब्दावलि को प्रमुखता दी है. अणुव्रत, महाव्रत, दशधर्म, ध्यान एवं समिति गुप्ति आदि का भी विवेचन किया है. इन्होंने पानी छानने के छनने के दो नाम लिखे हैं-नक्तक और कर्पट. स्वोपज्ञवृत्ति में नह्यते शिरसि नक्तक: "कीचक" (उरणा ३३) इत्यके निपात्यते नक्तं भव इति वा, द्रवद्रव्यं येन पूयते तत्र रूढोऽयं तत्तुल्येऽपि वस्त्रे प्रतीतो वर्तते. कल्पते कपंट: पुंक्लीबलिंग: "दिव्यवि" (उणा १४२) इत्यटः, अतएव स्पष्ट है कि आचार्य हेम ने जैन संस्कृति की शब्दावलि को बड़े सुन्दर और सुव्यवस्थित ढंग से इस कोष में अंकित किया है.
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