Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७६२ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
पूर्ण शुद्धि का हम इसी देह में अनुभव करें, यही हमारा मुख्य ध्येय है. ' इन उल्लेखों को लक्ष्य में रखकर कोई भी बुद्धिमान् तटस्थ विचारक मात्र वेशादि बाह्य भेद के ही कारण एक ही आम्नाय में भेद की कल्पना कैसे कर सकता है ?
प्राचीन दिगम्बरीय ग्रंथों में वर्तमान अंगादि आगमों के अवतरण प्रमाण रूप उद्धृत किये हुए मिलते हैं. इस तथ्य को बतलाने के लिए यहाँ कतिपय स्थलों की चर्चा की जाती है.
सर्वजैनसम्मत महर्षि उमास्वाति या उमास्वामी द्वारा प्रणीत तत्त्वार्थसूत्र के विवेचन के लिये दोनों परम्पराओं में कई वृत्तियां विद्यमान हैं. उनमें श्री भट्ट अकलंकदेवकृत राजवान्तिक भी एक विशाल ग्रंथ है. उसके चतुर्थ अध्याय के छब्बीसवें सूत्र 'विजयादिषु द्विचरमाः' के वार्तिक में व्याख्याप्रज्ञप्ति अर्थात् भगवती सूत्र की साक्षी दी गई है. वार्तिक में लिखा है – एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेषु उक्तम्' ऐसा कह कर वहाँ व्याख्याप्रज्ञप्ति के आलापकों का प्रमाण दिया गया है और वहाँ यह भी कहा गया है कि 'गौतमप्रश्ने भगवता उक्तम्' अर्थात् गौतम के प्रश्न करने पर उत्तर के रूप में भगवान् ने ऐसा कहा है.
जिस व्याख्याप्रज्ञप्ति में गौतम ने प्रश्न किये हैं और भगवान् ने उनके उत्तर दिये हैं, ऐसी व्याख्याप्रज्ञप्ति भगवती सूत्र की यहां साक्षी दी गई है. किन्तु ऐसी कोई व्याख्याप्रज्ञप्ति दिगम्बर आम्नाय में तो उपलब्ध नहीं है. श्वेताम्बर आम्नाय में पंचम अंग के रूप में व्याख्याप्रज्ञप्ति अभी विद्यमान है और उसमें गौतम ने प्रश्न किये हैं और भगवान् ने उनके उत्तर दिए हैं. अतएव यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्री अकलंक देव ने जिस व्याख्याप्रज्ञप्ति का हवाला दिया है, वह यही व्याख्याप्रज्ञप्ति है जो श्वेताम्बर आम्नाय में प्रसिद्ध है. श्री भट्ट अकलंकदेव जी ने इस व्याख्याप्रज्ञप्ति को 'आर्ष' विशेषण भी दिया है. इससे ज्ञात होता है कि यही व्याख्याप्रज्ञप्ति श्री अकलंकदेव के सामने थी, जिसे उन्होंने उक्त सूत्र के वार्तिक में साक्ष्य रूप से स्वीकृत किया. अकलंक देव ने जिस दंडक का हवाला दिया है वह प्रस्तुत व्याख्याप्रज्ञप्ति के २४ वें शतक के २२ वें उद्देशक के १६-१७ वें सूत्र में प्रश्नोत्तर रूप से विद्यमान भी है.
भगवती आराधना नामक ग्रंथ दिगम्बर आम्नाय में विशेष प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित है. उसकी 'विजयोदया' नाम की वृत्ति में आचारांग सूत्र, सूत्रकृतांग दशकालिकसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र और निशी (निषेध) के अवतरण पाये जाते हैं. वे अवतरण क्रमानुसार इस प्रकार हैं
'पूर्वागमेषु वस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम्' (मूलाराधना, विजयोदया वृत्ति पृ० ६११) अर्थात् पूर्वागमों में वस्त्र और पात्र का ग्रहण करना बताया गया है. जैसे कि- आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तम् पडिलेह पाद उमा कडा अण्णदर उवधि पावेव मूताराधना विजयोति ०६११).
बात यह है कि विजयोदयासकार पूर्वपक्ष करते हुए कहते हैं कि पूर्व आगमों-प्राचीन आगमों में वस्त्र और पात्र आदि को ग्रहण करने का उपदेश दिया गया है, ऐसा कहकर वे क्रमशः इस विषय के आगमों के अवतरण दे रहे हैं. वे कहते हैं कि आचारांग सूत्र के लोकविचय नाम के द्वितीय अध्ययन के पांचवें उद्देशक में कहा गया है कि 'पात्र, पादपोंछनक, वसति, कडासन-बैठने का प्रासन, ऐसी किसी अन्यतर उपधि को प्राप्त करे. '
वर्तमान में उपलब्ध आचारांग सूत्र के लोकविचय नामक द्वितीय अव्ययन के पांचवें उद्देशक में जो पाठ इस संबंध में है, वह इस प्रकार है- 'वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं च उग्गहं च कडासणं' ( आचारांग द्वि० २ उद्देशक ५ )
अध्ययन
१. पच्चयत्थं च लोगस्स, नायाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ॥ अह भवे पन्ना उ, मोक्खसन्भूयसाणा | नाणं च दंसणं चैव चरितं चेव निच्छए ।
- उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २३, गा० ३२-३३.
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