Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७६. : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
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इनकी रचना का उदाहरण इस प्रकार है :
पांन पदारथ सुघड़ नर, अणतोलीया बिकाई । जिम जिम पर भुइ संचरइ, मोलि मुहंगा थाइ ।
हंसा नई सरवर घणां, कुसुम केती भवरांह । सापुरिसां नई सज्जन घणा, दूरि विदेस गयांह । सत्रहवीं सदी के जैन साहित्यकारों में समयसुन्दर (सं० १६२० से १७०२) का स्थान महत्त्वपूर्ण है. इनकी रचनायें अनेक हैं जिनका प्रकाशन समयसुन्दर कृत 'कुसुमांजलि' में श्री अगरचन्द जी नाहटा द्वारा संपादित रूप में हो चुका है. इनके गीतों के विषय में प्रसिद्ध है:
"समयसुन्दर रा गीतड़ा, कुंभे राणे रा भींतड़ा।" अर्थात् जिस प्रकार महाराणा कुंभा द्वारा बनवाया हुआ चित्तौड़ का कीर्तिस्तम्भ, कुंभश्याम का मन्दिर और कुंभलगढ़ प्रसिद्ध है उसी प्रकार समयसुन्दर के गीत प्रसिद्ध हैं. कवि उदयराज जोधपुर नरेश उदयसिंह जी के समकालीन थे. इनका ( ज० सं० १९३१-१६७४ ई०) माना जाता है. इनकी रचनाओं में ‘भजन छत्तीसी' और 'गुणबावनी' महत्त्वपूर्ण है. जिनहर्ष का अपर नाम जसराज था. इनकी रचनाओं में जसराज बावनी (सं० १७३८ वि० में रचित)और नन्द बहोत्तरी (सं० १७१४ में रचित) प्रसिद्ध हैं. १८ वीं शताब्दी में आनन्दघन नामक कवि ने 'चीबीसी' नामक रचना में तीर्थंकरों के स्तवन लिखे. इनका देहान्त मारवाड़ में सं० १७३० वि० में हुआ. इनका आध्यात्मिक चितन उच्चकोटि का था :
राम कहो रहमान कहो, कोउ कान कहो महादेव री । पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री ।। भाजन-भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ निज पद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहेमान री । कर से करम कान से कहिए, महादेव निर्वाण री॥ परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चीन्हें सो ब्रह्म री।
इस विध साधो आप आनंदघन, चेतनमय निःकर्म री ॥ उत्तमचन्द और उदयचन्द भंडारी जोधपुर के महाराजा मानसिंह के मंत्री थे. इनका रचनाकाल सं० १८३३ से १८८६ तक है. दोनों ही भंडारी बन्धुओं ने अनेक रचनाएँ की जिनसे इनके काव्यशास्त्रीय और आध्यात्मिक ज्ञान का परिचय मिलता है. जैन साहित्यकारों की संख्या सैकड़ों ही नहीं हजारों तक पहुंचती है. प्रत्येक काल में साहित्यकारों की रचनाएँ विकसित अवस्था में और विविध रूपों में प्राप्त होती हैं. जैन साहित्य मुख्यतः राजस्थान और गुजरात में रचा गया क्योंकि प्राचीनकाल में जैन धर्म का प्रचार भी मुख्यतः इन्हीं प्रदेशों में हुआ. जैन साहित्यकारों ने सदा ही लोक-भाषा, राजस्थानी और गुजराती में अपनी रचनाएँ लिखीं जिससे इनका प्रचार समस्त जनता में सुदूर देहातों तक में हुआ. संस्कृत और हिन्दी में रचित जैन साहित्य भी उपलब्ध होता है किंतु अत्यल्प मात्रा में ही. राजस्थानी भाषा में रचित जैन साहित्य राजस्थान ही नहीं देशविदेश के अनेक ग्रंथ-भंडारों में मिलता है. राजस्थान के अनेक स्थानों में जैन साहित्य सम्बन्धी हजारों ही हस्तलिखित ग्रन्थ बिखरे हुए धूल-धूसरित और जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पड़े हुए हैं. इन ग्रन्थों के विधिवत् संरक्षण, सूचीकरण, संपादन और प्रकाशन की अब अनिवार्य आवश्यकता है. इस प्रकार के कार्यों के पूर्णरूपेण सम्पादित होने पर ज्ञात होगा कि जैन साहित्यकारों का राजस्थानी साहित्य के निर्माण एवं विकास में महत्त्वपूर्ण योग रहा है.
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