Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थानी जैन संतों की साहित्य-साधना : ७६७
तक संस्कृत रचनाओं को पढ़ने की जनसाधारण में विशेष रुचि रही, इसीलिए प्राकृत एवं अपभ्रश ग्रंथों पर भी संस्कृत में टीकाएँ एवं टिप्पण लिखे जाते रहे. किसी विषय पर यदि नवीन रचनाओं का लिखा जाना संभव नहीं हुआ तो प्राचीन साहित्य की प्रतिलिपियाँ करवा कर भण्डारों में रखी गयी. राजस्थान के सिद्धर्षि संभवतः प्रथम जैन संत थे जिन्होंने उपदेशमाला पर संस्कृतटीका लिखी और 'उपमितिभवप्रपंच कथा' को संवत् ६६२ में समाप्त किया. चन्द्रकेवलिचरित इनकी एक और रचना है जिसे इन्होंने संवत् ९७४ में पूर्ण किया था. १२ वीं शताब्दी में होने वाले आचार्य हेमचन्द्र से भी राजस्थानी जनता कम उपकृत नहीं है. इनके द्वारा लिखे हुये साहित्य का इस प्रदेश में विशेष प्रचार रहा. यही कारण है उनके द्वारा निबद्ध साहित्य दोनों ही सम्प्रदायों के शास्त्रभण्डारों में समान रूप से पाया जाता है. हेमचन्द्राचार्य संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे और उन्होंने जो कुछ इस भाषा में लिखा वह प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है. १५ वीं शताब्दी में राजस्थान में भट्टारक सकलकीर्ति का उदय विशेष रूप से उल्लेखनीय है. सकलकीर्ति संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे. ये पहिले मुनि थे और बाद में इन्होंने अपने आपको भट्टारक घोषित किया था तथा संवत् १४६२ में गलियाकोट में एक भट्टारक गादी की स्थापना की. इन्होंने २८ से भी अधिक संस्कृत रचनायें लिखी जो राजस्थान के विभिन्न ग्रंथभण्डारों में उपलब्ध होती हैं. सकलकीति के पश्चात् उनकी परम्परा में होने वाले भट्टारक भुवनकीर्ति, ब्रह्म जिनदास, भट्टारक ज्ञानभूषण, विजयकीति शुभचन्द, सकलभूषण, सुमतिकीर्ति, वादिभूषण आदि अनेक शिष्य संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान् थे. इन सन्तों ने संस्कृत भाषा के कितने ही ग्रंथ लिखे, श्रावकों से आग्रह करके ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ करवाई और शास्त्र-भण्डारों में विराजमान की. ब्रह्म जिनदास की १२ से अधिक रचनाएँ मिलती हैं जिनमें रामचरित [पद्मपुराण], हरिवंशपुराण एवं जम्बूस्वामीचरित के नाम उल्लेखनीय हैं. भट्टारक ज्ञानभूषण की अकेली तत्त्वज्ञानतरंगिणी [सं० १५६०] उनकी संस्कृत की विद्वत्ता को बतलाने के लिये पर्याप्त है. शुभचन्द्र तो अपने समय के प्रसिद्ध भट्टारक थे. इनकी संस्कृत रचनाएँ प्रारम्भ से ही लोकप्रिय रही हैं. इनकी २४ संस्कृत रचनाएँ तो उपलब्ध हो चुकी हैं. ये षट्भाषाकविचक्रवर्ती कहलाते थे. तथा विविध-विद्याधर [शब्दागम, युक्त्यागम तथा परमागम के ज्ञाता थे. इनकी प्रसिद्ध कृतियों में चन्द्रप्रभचरित्र, करकुण्डचरित्र, कात्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, जीवन्धरचरित, पांडवपुराण, श्रेणिकचरित्र, चारित्रशुद्धिविधान आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. आचार्य सोमकीर्ति १५ वीं शताब्दी के उद्भट विद्वान् थे. ये काष्ठासंघ में होनेवाले ८७ वें भट्टारक थे तथा भीमसेन के शिष्य थे. इन्होंने संस्कृत भाषा में सप्तव्यसनकथा, प्रद्युम्नचरित्र, एवं यशोधरचरित्र रचनाएँ की. तीनों ही लोकप्रिय रचनाएँ हैं और शास्त्रभण्डारों में मिलती हैं. हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् ब्र० रायमल्ल ने भक्तामरस्तोत्र की वृत्ति लिखकर अपनी संस्कृतविद्वत्ता का परिचय दिया. ब्र. कामराज ने सकलकीर्ति के आदिपुराण को देखकर सं० १५६० में जयपुराण की रचना की. सेनगण के प्रसिद्ध भट्टारक सोमसेन ने वराट नगर में शक संवत् १६५६ में पद्मपुराण की रचना की. आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ योगचिन्तामणि के संग्रहकर्ता थे नागपुरीय तपोगच्छ के संत हर्षकीति सूरि. इस ग्रंथ का दूसरा नाम वैद्यकसारसंग्रह भी है. इस ग्रंथ की प्रतियाँ राजस्थान के बहुत से भण्डारों में उपलब्ध होती हैं. १५ वीं शताब्दी में जिनदत्तसूरि ने जैसलमेर में बृहद् ज्ञानभण्डार की स्थापना की. ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे. इनके शिष्य कमलसंयमोपाध्याय ने संवत् १५४४ में उत्तराध्ययन पर संस्कृत टीका लिखी. इनके अतिरिक्त जैसलमेर में और भी कितने ही सन्त हुये जो संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे. इधर आमेर, जयपुर, श्रीमहावीरजी, अजमेर एवं नागौर भी भट्टारकों के केन्द्र रहे. ये अधिकांश भट्टारक संस्कृत के विद्वान् होते थे. इनके द्वारा लिखवाये बहुत से ग्रंथ राजस्थान के कितने ही भण्डारों में उपलब्ध होते हैं.
हिन्दी व राजस्थानी साहित्य राजस्थान में हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा में काव्यरचना बहुत पहिले से प्रारम्भ हो गई थी. जनसाधारण की इस भाषा की ओर रुचि देखकर जैन सन्तों ने हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा को अपना लिया और इसमें छोटी रचनाएँ
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