Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल : राजस्थानी जैन संतों की साहित्य-साधना : ७६६
ब्रह्म बूचराज १६ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे. मयण-जुज्झ इनकी प्रथम रचना थी जो इन्होंने संवत् १५८४ में समाप्त की थी. इनके अन्य ग्रंथों में सन्तोष-तिलक जयमाल, चेतन पुद्गलधमाल आदि उल्लेखनीय रचनाएं हैं. ये दोनों ही रूपक रचनाएं हैं जो नाटक साहित्य के अन्तर्गत आती हैं. सन्त विद्याभूषण रामसेन परम्परा के यति थे. इन्होंने सोजत नगर में भविष्यदत्त रास को संवत् १६०० में समाप्त किया था. धर्मसमुद्र गणि खतरगच्छीय विवेकसिंह के शिष्य थे जिन्होंने 'सुमित्र कुमाररास' को जालौर में संवत् १५६७ में तथा 'प्रभाकर गुणाकर चौपई' को संवत् १५७३ में मेवाड़ प्रदेश में समाप्त किया है. शकुंतला रास इनकी बहुत छोटी रचना है जो संभवत: इस तरह की प्रथम रचना है. पावचंद्र सूरि अपने समय के प्रभावशाली सन्त कवि थे. इन्होंने ५० से अधिक रचनाएं राजस्थानी भाषा को समर्पित करके साहित्यसेवा का सुन्दर उदाहरण उपस्थित किया. इनका जन्म संवत् १५३८ में तथा स्वर्गवास संवत् १६१२ में हुआ था. राजस्थान के अन्य सन्त कवियों में विनयसमुद्र, कुशललाभ, हरिकलश, कनकसोम, हेमरत्नसूरि आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. कुशललाभ खरतरगच्छ के सन्त थे. इनके द्वारा लिखी हुई 'माधवानल चौपई' [सं० १६१६] एवं 'ढोला-मारवणरी चौपई' राजस्थानी भाषा की अत्यधिक प्रसिद्ध रचनाएं हैं जो लोककथानकों पर आधारित हैं. इसी तरह हरिकलश भी इसी खरतरगच्छ के साधु थे जो अपने समय के प्रसिद्ध विद्वानों में से थे. इनका अधिकतर बिहार जोधपुर एवं बीकानेर प्रदेश में हुआ और अपने जीवन में २७-२८ रचनाएं लिखीं. सभी रचनाएं राजस्थानी भाषा की हैं. १७ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ब्रह्मरायमल्ल एक अच्छे संत हुये जिनकी हनुमत चौपई, भविष्यदत्तकथा, प्रद्युम्नरास, सुदर्शन रास आदि अत्यधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय रचनाएं हैं. इन्होंने स्थान-स्थान पर घूम कर काव्यरचना की और जनसाधारण का इस ओर ध्यान आकृष्ट किया. इन्होंने गढ़हरसौर, गढ़ रणथम्भौर एवं सांगानेर आदि स्थानों का अपनी रचनाओं में अच्छा वर्णन किया है. आनन्दघन आध्यात्मिक सन्त थे. इनकी आनन्दधन बहोत्तरी एवं आनन्दघन चौबीसी उच्चस्तर की रचनाएं हैं. विद्वानों के मतानुसार इनका जन्म संवत् १६६० एवं मृत्यु संवत् १७३० में हुई थी. ब्रह्म कपूरचंद ने संवत् १६६७ में पाश्र्वनाथरासो को समाप्त किया था. इनके कितने ही पद भी मिलते हैं. इनका जन्म आनन्दपुर में हुआ था. हर्षकीति भी १७ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध राजस्थानी कवि थे. 'चतुर्गति वेलि' इनकी प्रसिद्ध रचना है जिसे इन्होंने संवत् १६८३ में समाप्त किया था. इनकी अन्य रचनाओं में षट्लेश्याकवित्त, पंचमगति बेलि, कर्महिंडोलना, सीमंधर की जकड़ी, नेमिनाथ राजमती गीत, मोरडा आदि उल्लेखनीय हैं. इनके कितने ही पद भी मिलते हैं जो भक्ति एवं वैराग्य रस से ओतप्रोत हैं. समयसुन्दर राजस्थानी भाषा के अच्छे विद्वान थे. श्री हजारीप्रसाद जी द्विवेदी के शब्दों में कवि का ज्ञानपरिसर बहुत ही विस्तृत है. वह किसी भी वर्ण्य विषय को विना आयास के सहज ही सम्भाल लेता है. इन्होंने संस्कृत में २५ तथा हिन्दी राजस्थानी भाषा में २३ ग्रंथ लिखे. इन्होंने सात छत्तीसियों की भी रचना की. कवि बहुमुखी प्रतिभा एवं असाधारण योग्यता वाले विद्वान् थे. इन्होंने सिन्ध, पंजाब, उत्तरप्रदेश. राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात आदि प्रान्तों में विहार किया और उनमें विहार करते हुये विभिन्न ग्रंथों की रचना भी की. राजस्थान में इन्होंने सबसे अधिक भ्रमण किया और अपने समय में एक साहित्यिक वातावरण-सा बनाने में सफल हुये. ये संगीत के भी अच्छे जानकार थे और अपनी रचनाओं को कभी-कभी गाकर भी सुनाया करते थे. राजस्थान का बागड प्रदेश गुजरात प्रान्त से लगा हुआ है. इसलिए गुजरात में होनेवाले बहुत से भट्टारक एवं सन्त राजस्थान प्रदेश को भी पवित्र करते अपने चरण-कमलों से. यहाँ साहित्य रचना करते एवं अपने भक्तों को उनका रसास्वादन कराते. इन सन्तों में भ० रत्लकीर्ति, भ० कुमुदचन्द्र, भ० अभयचंद्र, भ० अभयनंदी, भ० शुभचन्द्र, ब्रह्म जयसागर, मुनि कल्याणकीर्ति, श्रीपाल, गणेश आदि संस्कृत हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा के अच्छे विद्वान् थे. इनकी कितनी ही रचनाएँ रिखबदेव, डूंगरपुर, सागवाडा एवं उदयपुर के शास्त्रभण्डारों में उपलब्ध हुई हैं. रत्नकीति के नेमिनाथ फाग, नेमिनाथ बारहमासा एवं कितने ही पद उल्लेखनीय हैं. उनके पदों में मिठास एवं भक्ति का रसास्वादन
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