Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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०१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
लिखी जाने लगी. यद्यपि १७-१८ वीं शताब्दी तक अपभ्रश में कृतियां लिखी जाती रहीं एवं संस्कृतग्रंथों के पठनपाठन में जनता की उतनी ही रुचि बनी रही जितनी पहिले थी, किन्तु १३-१४ वीं शताब्दी से ही जनसाधारण की रुचि हिन्दी रचनाओं की ओर बढ़ती गयी और उसमें नये-नये ग्रंथ लिखे जाते रहे और उन्हें शास्त्र-भण्डारों में विराजमान किया जाता रहा. राजस्थान में हिन्दी का प्रथम सन्त कवि कौन था, यह तो अभी खोज का विषय है और इसमें विद्वानों के विभिन्न मत हो सकते हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि यहाँ १३ वीं शताब्दी से अपभ्रंश रचनाओं के साथसाथ हिन्दी रचनायें भी लिखी जाने लगीं. राजस्थान में जन सन्तों ने हिन्दी को उस समय अपनाया था जब इस भाषा में लिखना विद्वत्ता से परे माना जाता था तथा इसे संस्कृत के विद्वान् देशी भाषा कह कर सम्बोधित किया करते थे. किन्तु जैन सन्तों ने उनकी कुछ भी परवाह नहीं की और जनसाधारण की इच्छा एवं अनुरोध को ध्यान में रख कर हिन्दी साहित्य का सर्जन करते रहे. पहिले यह कार्य छोटी-छोटी रचनाओं से प्रारम्भ किया गया फिर रास, चरित, बेलि, फागु, पुराण एवं काव्य लिखे जाने लगे. १४ वीं शताब्दी में लिखा हुआ जिनदत्त चौपई हिन्दी का सुन्दर काव्य है जो कुछ ही समय पहिले जयपुर के एक जैन भण्डार में उपलब्ध हुआ है. पद स्तवन एवं स्तोत्र भी खूब लिखे जाने लगे. फिर व्याकरण, छंद, अलंकार, वैद्यक, गणित, ज्योतिष, नीति, ऐतिहासिक औपदेशिक, संवाद आदि विषयों को भी नहीं छोड़ा गया और इनमें अच्छा साहित्य लिखा गया. हिन्दी एवं राजस्थानी भाषा का यह सारा साहित्य राजस्थान के शास्त्रभण्डारों में संग्रहीत है. हिन्दी एवं राजस्थानी में लिखा हुआ इन सन्तों का साहित्य अभी अज्ञात अवस्था में पड़ा हुआ है और उस पर बहुत कम प्रकाश डाला जा सका है. राजस्थान में सैकड़ों जैन संत हुये हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से साहित्य की महती सेवा की है. लेकिन हम प्रमादवश उनकी अमूल्य सेवाओं को भूला बैठे हैं. अब साहित्य को शास्त्र-भण्डारों में अथवा आल्मारियों में बंद करके रखने का समय नहीं है किन्तु उसे विना किसी डर अथवा हिचकिचाहट के विद्वानों एवं पाठकों के सामने रखने का है. भरतेश्वर बाहुबलि रास संभवतः प्रथम राजस्थानी कृति है जो जैन सन्त शालिभद्र सूरि द्वारा १३ वीं शताब्दी में लिखी गयी. इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत एवं बाहुबली के जीवन का संक्षिप्त चित्रण है. भरत एवं बाहुबली के युद्ध का रोचक वर्णन है. इसके पश्चात् विजयसेन सूरि का रेवंतगिरिरास (सं० १२८८) सुमतिगरिण का नेमिनाथ रास (सं० १२७०) विनयप्रभ का गौतम रास (सं० १४१२) आदि कितने ही रास लिखे गये. १५ वीं शताब्दी से तो हिन्दी एवं राजस्थानी साहित्य में रचनाओं की एक बाढ़-सी आगयी. भट्टारक सकलकीति ने संस्कृत में रचनाएं निबद्ध करने के साथ-साथ कुछ रचनाएं राजस्थानी भाषा में भी लिखी, जिससे उस समय की साहित्यिक रुचि का पता लगता है. सकलकीर्ति की राजस्थानी रचनाओं में आराधना-प्रतिबोधसार, मुक्तावलिगीत, णमोकारगीत, सारसिखामणिरास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. सकलकीति के एक शिष्य ब्रह्म जिनदास ने ६० से भी अधिक रचनाएँ लिखकर हिन्दी साहित्य में एक नया उदाहरण प्रस्तुत किया. इन रचनाओं में कितनी ही रचनायें तो तुलसीदास की रामायण से भी अधिक बड़ी हैं. इनकी राम-सीता के जीवन पर भी एक से अधिक रचनाएं हैं. ब्रह्म जिनदास की अबतक ३३ रासा ग्रंथ २ पुराण, ७ गोत एवं स्तवन, ६ पूजाएं एवं ७ स्फुट रचनाएं उपलब्ध हो चुकी हैं. इन रचनाओं में रामसीतारास, श्रीपालरास, यशोधररास, भविष्यदत्त रास, परमहंसरास, हरिवंशपुराण, आदिनाथ पुराण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं. भट्टारक सकलकीति की शिष्य-परम्परा में होने वाले सभी भट्टारकों ने हिन्दी भाषा में रचनाएँ लिखने में पर्याप्त रुचि ली. खरतर गच्छ के आचार्य जिनराजसूरि के शिष्य महोपाध्याय जयसागर १५-१६ वीं शताब्दी के विद्वान् थे. इन्होंने राजस्थानी भाषा में ३२ से भी अधिक रचनायें लिखीं जिनमें विनती, स्तवन एवं स्तोत्र आदि हैं. ऋषिवर्द्धन सूरि की नलदमयन्तीरास [सं० १५१२] प्रमुख रचना है. मतिसागर १६ वीं शताब्दी के विद्वान् थे. राजस्थानी भाषा में इनकी कितनी ही रचनाएं उपलब्ध हैं जिनमें धन्नारास [सं०१५१४] नेमिनाथ वसंत, मयणरेहारास, इलापुत्र चरित्र, नेमिनाथगीत आदि के नाम उल्लेखनीय हैं.
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