Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
७४८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय ने उस संकलन में से कोई ५५ पृष्ठ नमूने के रूप में छपाए हैं.' इसके बाद जैन-ग्रन्थों के सूचीकारों में म्यूरिनाट (Guerinot) का नाम आता है, जिसने अपना “जैन ग्रन्थ-सूची पर निबन्ध" १९०६ ई० में प्रकाशित कराया. इसी प्रकार जैन शिलालेखों पर भी अपना निबन्ध दो वर्ष बाद प्रकट किया. तदनन्तर ल्युडर्स (Luders) ने भी अपने ब्राह्मीलेखों की सूची में जैन-पट्टावलि और परम्परा पर सम्यक् प्रकाश डाला है. जब जैन-साहित्य-संशोधन का प्रसंग आता है तो इस बात को भुलाया नहीं जा सकता कि जैन साहित्य के प्रति सर्वप्रथम आकृष्ट करने का श्रेय जार्ज ब्यूलर को है. उसने बम्बई प्रेसीडेन्सी की सेवा में रहते हुए भारतीय, विशेषत: जैन साहित्य के उद्धार की दिशा में १७ वर्षों तक बहुत बड़ा काम किया है. इसके परिणाम स्वरूप बहुत से ग्रन्थसंग्रहों के विवरण, अज्ञात ग्रन्थों के मूलपाठ, चूणिकायें आदि और अवचूरियाँ प्रकाश में आई और बहुत से विदेशी विद्वानों ने उन पर काम करके समीक्षात्मक निबन्ध लिखे और लिख रहे हैं.श्रीमती एस०स्टीवेन्सन नाम की महिला गुजरातमें ईसाई धर्म की प्रचारिका होकर आई थी. उन्होंने "The Heart of Jainism" नामक निबन्ध १६१५ में प्रकट किया और उसमें दिगम्बर शाखा की पूर्ण समीक्षा की. इससे पूर्व भी श्रीमती स्टीवेन्सन ने "आधुनिक जैन धर्म" पर अपनी टिप्पणी १९१० ई० में आक्सफॉर्ड से प्रकाशित कराई थी. म्यूरिनॉट ने "जैनों के धर्म" नामक पुस्तक १६२६ में लिखी और उसमें प्रस्तुत तथ्यों पर विद्वज्जगत् में खूब चर्चा रही. इससे एक वर्ष पूर्व ग्लेसनॅप (Glasenapp) लिखित "Der Janismus, Eine Indische Erlosungureligion नामक पुस्तक सन् १९२५ ई० में प्रकाश में आ चुकी थी, जिसमें जैन और अन्य भारतीय धर्मों का तुलनात्मक समीक्षण किया गया है. इसी लेखक ने एक और पुस्तक लिखी है जिसमें जैन-साहित्य की प्रतिनिधि कृतियों पर मन्तव्य प्रकट किए गए हैं. बहुत समय तक तो भारतीय जैनों को इस बात का पूरा-पूरा पता ही नहीं चला अथवा बहुत कम पता चला कि उनके साहित्य पर विदेशों में कितना और क्या अनुसंधान हो रहा है. अथवा, अधिक से अधिक उन्हें केवल अंग्रेजी में लिखित पुस्तकों और निबन्धों का ही किसी अंश तक परिचय प्राप्त हो सका. जर्मन और अन्य पाश्चात्य भाषाओं में जो काम हुआ वह तो उनकी पहुँच के बाहर ही रहा. परिणाम यह हुआ कि पाश्चात्यों द्वारा किए हुए श्रम का विवरण प्रायः वहीं तक सीमित रहा. उदाहरणार्थ, जैकाबी द्वारा किए गए काम का केवल वही अंश हमारी जानकारी में आया जो अंग्रेजी में था और बहुत कुछ अपरिचित ही रहा. परन्तु, जो कुछ सामग्री भारत में अवगत हो सकी वही जैकोबी साहब को १९१४ ई० में "जैनदर्शनदिवाकर" की पदवी प्राप्त कराने में पर्याप्त सिद्ध हुई. प्राकृत साहित्य पर वैज्ञानिक ढंग से शोध करने वालों में प्रो० जैकाबी का नाम सबसे आगे रहेगा. इसी प्रकार वर्तमान में जैन संशोधन के ख्यातनामा विद्वान् वाल्थर शुब्रिङ् ने भी "डाक्ट्रिन् आफ दी जैन्स" नामक पुस्तक लिखकर इस परम्परा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. इस लेख द्वारा यह बतलाने का प्रयास किया गया है कि भारतीय-संस्कृति के पुनरुद्धार के लिए इन विदेशी विद्वानों ने सबसे प्रथम कदम उठाए और आगे आने वाले संशोधकों के लिए आधारभूमि तैयार की. यद्यपि इनके सभी कथन पूरी तरह से प्रमाणित नहीं हैं, फिर भी, शोध की जिस प्रणाली का सूत्रपात इन लोगों द्वारा हुआ है वह वैज्ञानिक और सुदृढ़ माना जा सकता है.
१. Indian Antiquary. P.23, 169 २. एपिग्राफिया एण्डिका भा० १०-परि० ३. Essai de Bibliographie Jaina, Paris, 1906.
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org