Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
तथा निशीथ को अलग स्थान दिया गया है. इससे यह तो स्पष्ट होता है कि कल्प, व्यवहार और निशीथ की अंगबाह्य अर्थाधिकार की परम्परा चली आती थी. भद्रबाहुकृत कल्प-व्यवहार जिस रूप में आज श्वेताम्बरपरम्परा में मान्य हैं उसी रूप में दिगम्बर परम्परा में उल्लिखित अंगबाह्य कल्पादि मान्य थे या उससे भिन्न-यह निश्चयपूर्वक कहना कठिन है, किन्तु उनका जो विषय बताया गया है वही विषय उपलब्ध भद्रबाहुकृत कल्पादि में विद्यमान है. दोनों परम्पराओं के मत से स्थविरकृत रचानाएं अंगबाह्य मानी जाती रही हैं. भद्रबाहु तक श्वेताम्बर दिगम्बर का मतभेद स्पष्ट नहीं था. इन तथ्यों के आधार पर संभावना की जा सकती है कि कल्प-व्यवहार के जिन अर्थाधिकारों का उल्लेख धवला में है उन अर्थाधिकारों का सूत्रात्मक व्यवस्थित संकलन सर्वप्रथम आचार्य भद्रबाहु ने किया और वह संघ को मान्य हुआ. इस दृष्टि से धवला में उल्लिखित कल्प-व्यवहार और निशीथ तथा उपलब्ध कल्प-व्यवहार और निशीथ में भेद मानने का कोई कारण नहीं है. फिर भी दोनों की एकता का निश्चयपूर्वक विधान करना कठिन है. आचार्य भद्रबाहु की जो विशेषता है वह यह है कि इन्होंने अपने उक्त ग्रंथों में उत्सर्ग और अपवादों की व्यवस्था की है. इतना ही नहीं किन्तु व्यवहारसूत्र में तो अपराधों के दण्ड की भी व्यवस्था की गई है. ऐसी दण्डव्यवस्था एवं आचार्य आदि पदवी की योग्यता प्रादि के निर्णय सर्वप्रथम इन्हीं के ग्रंथों में मिलते हैं. संघ ने ग्रंथों को प्रमाणभूत माना यह आचार्य भद्रबाहु की महत्ता का सूचक है. श्रमणों के आचार के विषय में दशवकालिक के बाद दशा-कल्प आदि ग्रंथ दूसरा सीमास्तम्भ है. साथ ही एक बार अपवाद की शुरूआत होने पर अन्य भाष्यकारों व चूणिकारों ने भी उत्तरोत्तर अपवादों में वृद्धि की. संभव है कि इसी अपवाद-मार्ग को लेकर संघ में मतभेद की जड़ दृढ होती गई और आगे चल कर श्वेताम्बर-दिगम्बर का सम्प्रदाय-भेद भी दृढ हुआ. बृहत्कल्प-भाष्य भा० ६ की प्रस्तावना में मैंने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि उपलब्ध नियुक्तियों के कर्ता श्रुतकेवली भद्रबाह नहीं है किन्तु ज्योतिविद् वराहमिहिर के भ्राता द्वितीय भद्रबाह हैं जो विक्रम की छठी शताब्दी में हुए हैं. अपने इस कथन का स्पष्टीकरण करना यहाँ उचित है. जब मैं यह कहता हूं कि उपलब्ध निर्यक्तियाँ द्वितीय भद्रबाहु की हैं, श्रुतकेवली भद्रबाहु की नहीं तब इसका तात्पर्य यह नहीं कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने नियुक्तियों की रचना की ही नहीं. मेरा तात्पर्य केवल इतना ही है कि जिस अन्तिम संकलन के रूप में आज हमारे समक्ष नियुतियाँ उपलब्ध हैं वे श्रुतकेवली भद्रबाहु की नहीं है. इसका अर्थ यह नहीं कि द्वितीय भद्रबाहु के पूर्व कोई नियुक्तियाँ थी ही नहीं. नियुक्ति के रूप में आगमव्याख्या की पद्धति बहुत पुरानी है. इसका पता हमें अनुयोगद्वार से लगता है. वहां स्पष्ट कहा गया कि अनुगम दो प्रकार का होता है : सुत्ताणुगम और निज्जुत्तिणुगम, इतना ही नहीं किन्तु निर्यक्तिरूप से प्रसिद्ध गाथाएं भी अनुयोगद्वार में दी गई हैं. पाक्षिकसूत्र में भी "सनिज्जुत्तिए" ऐसा पाठ मिलता है. द्वितीय भद्रबाहु के पहले भी गोविन्द वाचक की नियुक्ति का उल्लेख निशीथभाष्य व चूणि में मिलता है. इतना ही नहीं किन्तु वैदिकवाङ्मय में भी निरुक्त अति प्राचीन है. अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि जैनागम की व्याख्या का नियुक्ति नामक प्रकार प्राचीन है. यह संभव नहीं कि विक्रम की छठी शताब्दी तक आगमों की कोई व्याख्या नियुक्ति के रूप में हुई ही न हो. दिगम्बरमान्य मूलाचार में भी आवश्यक-नियुक्तिगत कई गाथाएं हैं. इससे भी पता चलता है कि श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय का स्पष्ट भेद होने के पूर्व भी नियुक्ति की परम्परा थी. ऐसी स्थिति में श्रुतकेवली भद्रबाहु ने नियुक्तियों की रचना की है—इस परम्परा को निर्मूल मानने का कोई कारण नहीं है. अतः यही मानना उचित है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने भी नियुक्तियों की रचना की थी और बाद में गोविन्द वाचक जैसे अन्य आचार्यों ने भी. उसी प्रकार क्रमशः बढ़ते-बढ़ते नियुक्तियों का जो अन्तिम रूप हुआ वह द्वितीय भद्रबाहु का है. अर्थात् द्वितीय भद्रबाह ने अपने समय तक की उपलब्ध नियुक्ति-गाथाओं का अपनी नियुक्तियों में संग्रह किया हो, साथ ही अपनी ओर से भी कुछ नई गाथाएं बना कर जोड़ दी. यही रूप आज हमारे सामने नियुक्ति के नाम से उपलब्ध है. इस तरह क्रमशः नियुक्ति-गाथाएं बढ़ती गईं. इसका एक प्रबल प्रमाण यह है कि दशवकालिक की दोनों चूणियों
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