Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७२६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय आचार्य शीलांक ने भी बहुत से पाठभेद दिये हैं, फिर भी चूणिकार की अपेक्षा ये बहुत कम हैं, यहां पर एक बात खास ध्यान देने योग्य है कि खुद आचार्य शीलांक ने स्वीकार किया है कि 'हमें चूर्णिकारस्वीकृत आदर्श मिला ही नहीं.' यही कारण है कि उनकी टीका में चूणि की अपेक्षा मूल सूत्रपाठ एवं व्याख्या में बहुत अन्तर पड़ गया है. इसके साथ मेरा यह भी कथन है कि आज हमारे सामने जो प्राचीन सूत्रप्रतियां विद्यमान हैं उनके पाठभेदों का संग्रह किया जाय तो सीमातीत पाठभेद मिलेंगे. इनमें अगर भाषाप्रयोग के पाठभेदों को शामिल किया जाय तो मैं समझता हूं कि पाठभेदों का संग्रह करने वाले का दम निकल जाय. फिर भी यह कार्य कम महत्त्व का नहीं है. प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी की ओर से जो आगमों का सम्पादन किया जा रहा है उसमें इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण सब बातोंको समाविष्ट करने का यथासंभव पूरा ध्यान रखा जाता है. दशवैकालिकसूत्र पर स्थविर अगस्त्यसिंहकृत चूणि, अज्ञातनामकर्तृक दूसरी चूणि और आचार्य हरिभद्रकृत शिष्यहितावृत्ति-ये तीन व्याख्याग्रंथ मौलिक व्याख्यारूप हैं. इनके अलावा जो अन्य दृत्तियां विद्यमान हैं उन सबका मूलस्रोत आचार्य हरिभद्र की बृहद्वृत्ति ही है. आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में "तत्रापि" 'कत्यह, कदाऽहं, कथमह' इत्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते" (पत्र ८५-१) ऐसा कह कर पाठभेदों की झंझट से छुटकारा ही पा लिया. अनामकर्तृक चूणि जिसका उल्लेख आचार्य हरिभद्र अपनी वृत्ति में वृद्ध-विवरण के नाम से करते हैं, उसमें कहीं-कहीं पाठभेदों का उल्लेख होने पर भी उनका कोई खास संग्रह नहीं है. किन्तु स्थविर अगस्त्यसिंहविरचित चूणि में सूत्रपाठों का न्यूनाधिक्य, पाठभेद, व्याख्याभेद आदि का संग्रह काफी मात्रा में किया गया है. मूलसूत्र की भाषा का स्वरूप भी वृद्धविवरण एवं आचार्य हरिभद्र की वृत्ति की अपेक्षा बहुत ही भिन्न है. वृद्धविवरण व आचार्य हरिभद्र की वृत्ति में मूल सूत्र की भाषा का स्वरूप आज की प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियों में जैसा पाया जाता है, करीब-करीब उससे मिलताजुलता ही है. यहाँ पर प्राचीन चूणियों एवं उनमें प्राप्त होनेवाले पाठभेदादि का उल्लेख कर आपका जो समय लिया है उसका कारण यह है कि वलभी नगर में स्थविर आर्य देवधिगणि क्षमाश्रमण प्रमुख जनसंघ ने जो जैनागमों का व्यवस्थापन किया था और इन्हें ग्रंथारूढ किया था वह यदि विस्तृत रूप में होता तो वालभी ग्रंथलेखन के निकट भविष्य में होनेवाले चूणिकार, आचार्य हरिभद्र, आचार्य शीलांक, श्री अभयदेवसूरि आदि को विकृतातिविकृत आदर्श न मिलते. जैसे आज हमें चार सौ, पाँच सौ, यावत् हजार वर्ष पुरानी शुद्धप्रायः हस्तप्रतियां मिल जाती हैं उसी प्रकार चूणिकार आदि को भी बलभीव्यवस्थापित शुद्ध एवं प्रामाणिक पाठ वाले आदर्श अवश्य ही मिलते, किन्तु वैसा नहीं हुआ. इसके लिये उन्होंने विषाद ही प्रकट किया है. अत: मुझे यही लगता है कि देवधिगणि क्षमाश्रमण का ग्रंथलेखन बहुत संक्षिप्तरूप में हुआ होगा, जो वलभी के भंग के साथ ही नष्ट हो गया. (२४) भहियायरिय-सूत्रकृतांगचुणि, पत्र ४०५ के "अत्र दूषगणिक्षमाश्रमणशिष्य-भद्दियाचार्या ब्रुवते" इस उल्लेख के अनुसार भद्दियाचार्य स्थविर दूषगणि के शिष्य थे. इनके नाम का उल्लेख एवं मत का संग्रह अगस्त्यसिंहविरचित दशवकालिकचूणि पत्र ३ और अनामकर्तृक दशवकालिकचूणि पत्र ४ में भी पाया जाता है. (२५) दत्तिलायरिय-इनके नाम का निर्देश एवं मत का संग्रह उपयुक्त दोनों दशवकालिकचूर्णियों के क्रमशः ३ व ४ पत्र में है. अज्ञातकर्तृक दशवकालिकचूणि में भद्दियायरिय एवं दत्तिलायरिय-इन दोनों स्थविरों के नामों का उल्लेख व इनके मत का संग्रह सामान्यतया किया गया है, जब कि अगस्त्यसिंहविरचित चूणि में "इह कयरेण एक्केण अहिकारो? सव्वण्णुभासिए का एक्कीयमयवियारणा ? तहा वि वक्खाणभेदपदरिसणत्थं कित्तिनिमित्तं गुरूणं भण्ण ति-भदियायरिओवएसेणं भिन्नरूवा एक्का दससद्देण संगिहीया भवंति त्ति संगहेक्ककेण अहिकारो, दत्तिलायरिओवएसेण सुयनाणं खओवसमिए भावे वट्टति त्ति भावेक्ककेण अहिगारो" इस प्रकार है. इस तरह इन दोनों स्थविरों के नाम का उल्लेख 'कित्तिनिमित्तं
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