Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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मुनि श्री पुण्यविजय : जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय : ७३७
चूर्णि निर्युक्तिओं की रचना पिछले जमाने में बंद हो गई, किन्तु संग्रहणी, भाष्य- महाभाष्य, वृणि की रचना का प्रचार बाद में भी चालू रहा है. संस्कृतवृत्तियों की रचना के बाद यद्यपि आगमों पर ऐसा कोई प्रयत्न नहीं हुआ है तो भी आगमों के विषयों को लेकर तथा छोटे-मोटे प्रकरणों पर भाष्य - महाभाष्य चूर्णि लिखने का प्रयत्न चालू ही रहा है, यह आगे प्रकरणों के प्रसंग में मालूम होगा.
यहाँ पर जैन आगम और प्राकृत व्याख्याग्रन्थों का परिचय दिया गया है ये बहुत प्राचीन एवं प्राकृत भाषा के सर्वोत्कृष्ट अधिकारियों के रचे हुए हैं. प्राकृतादि भाषाओं की दृष्टि से ये बहुत ही महत्त्व के है
प्रकरण
प्रकरण किसी खास विषय को ध्यान में रखकर रचे गये हैं. मेरी दृष्टि से प्रकरणों को तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है- तार्किक, आगमिक और औपदेशिक.
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तार्किक प्रकरण-आचार्य श्रीसिद्धसेन का सन्मतितर्क, आचार्य श्रीहरिभद्र का धर्मसंग्रहणी प्रकरण, उपाध्याय श्री यशोविजयकृत श्रीज्यले तस्यविवेक, धर्मपरीक्षा आदि का इस कोटि के प्रकरणों में समावेश होता है. यद्यपि ऐसे तार्किक प्रकरण बहुत कम हैं, फिर भी इन प्रकरणों का प्राकृत भाषा के अतिरिक्त तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भी बहुत महत्व है.
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श्रागमिक प्रकरण – आगमिक प्रकरणों का अर्थ जैन आगमों में जो द्रव्यानुयोग व गणितानुयोग के साथ संबन्ध रखने वाले विविध विषय हैं उनमें से किसी एक को पसंद करके उसका विस्तृतरूप में निरूपण करनेवाले या संग्रह करनेवाले ग्रंथ प्रकरण हैं. ऐसे प्रकरणों के रचनेवाले शिवशर्म, जिनभद्र क्षमाश्रमण, हरिभद्रसूरि, चन्द्रर्षि महत्तर, गर्गषि, मुनिचंद्रपूर, सिद्धसेनरि, जिनवल्लभ गणि अभयदेवसूरि श्रीचन्द्रसूरि पत्रेश्वरसूरि देवेन्द्रसूरि सोमतिलकसूरि, रत्नशेखरसूरि, विजयविमलगणि आदि अनेक आचार्य हुए हैं. इनमें से आचार्य शिवशर्म, चन्द्रषि महत्तर, गर्गर्षि, जिनवल्लभगणि, देवेन्द्रसूरि आदि कर्मवादविषयक कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह प्राचीन कर्मपंथ और नव्यकर्मग्रंथ शास्त्रों के प्रणेता है. इनमें भी शिवशमं प्रणीत कर्मप्रकृति और चन्द्रषि प्रणीत पंचसंग्रह, व इनकी चूर्णि वृत्तियाँ महाकाय ग्रंथ हैं. ये दो शास्त्र आगमकोटि के महामान्य ग्रंथ माने जाते हैं. इनके अलावा आचार्य जिनभद्र के संग्रहणी क्षेत्रसमास-विशेषणवती, हरिभद्रसूरि के पंचाशक - विशतिविंशिका पंचवस्तुक-उपदेशपद-श्रावकधर्मविधितंत्र-योगशतक-संबोधप्रकरण आदि, मुनिचन्द्रसूरि के अंगुलसप्तति, वनस्पतिसप्तति आवश्यकसप्तति तथा संख्या बंध कुलक आदि सिद्धसेनसूरि का १६०६माथा परिमित प्रवचनसारोद्धारप्रकरण, अभयदेव यूरि के पंच निधी संग्रहणी, प्रज्ञापना तृतीय पदसंग्रहणी, सप्ततिकाभाष्य षस्थानक भाष्य, नवतत्त्व भाष्य, आराधनाप्रकरण. श्रीचन्द्रसूरि का संग्रहणीप्रकरण, चक्रेश्वरसूरि के ११२३ गाथा परिमित शतकमहाभाष्य, सिद्धांतसारोद्धार, पदार्थस्थापना, सूक्ष्मार्थसप्तति चरणकरणसप्तति, सभापंचक स्वरूप प्रकरण आदि, देवेन्द्रसूरि के देववंदनादि भाष्यत्रय, नव्यकर्म ग्रंथपंचक, सिद्धदेहिका, सिद्धपंचाशिका आदि, सोमतिलकसूरि का नव्य बृहत्क्षेत्रसमासप्रकरण, रत्नशेखरसूरि के क्षेत्रसमास, गुरुगुण षट्त्रिंशिका आदि प्रकरण हैं । यहीं मुख्य मुख्य प्रकरणकार आचार्यों के नाम और उनके प्रकरणों का संक्षेप में दिग्दर्शन कराया गया है । अन्यथा प्रकरणकार आचार्य और इनके रचे हुए प्रकरणों की संख्या बहुत बड़ी है. इनमें कितनेक प्रकरणों पर भाष्य, महाभाष्य और चूर्णियाँ भी रची गई हैं.
श्रपदेशिक प्रकरण- औपदेशिक प्रकरण वे हैं, जिनमें मानवजीवन की शुद्धि के लिए अनेकविध मार्ग दिखलाये गये हैं. ऐसे प्रकरण भी अनेक रचे गये हैं. आचार्य धर्मदास की उपदेशमाला, प्रद्युम्नाचार्य का मूलशुद्धिप्रकरण, श्री शान्तिसूरि का धर्म रत्नप्रकरण, देवेन्द्रसूरिका श्राद्धविधिप्रकरण, मलधारी हेमचन्द्रसूरि का भवभावना और पुष्पमाला प्रकरण, चन्द्रप्रभमहत्तर का दर्शनशुद्धिप्रकरण, वर्द्धमानमूरि का धर्मोपदेशमालाप्रकरण, यशोदेवसूरि का नवपदप्रकरण आस के उपदेशकंदी, विवेकमंजरी प्रकरण, धर्मषोषसूरि का ऋषिमंडल प्रकरण आदि बहुत से औपदेशिक छोटे-छोटे प्रकरण हैं, जिनपर महाकाय टीकायें भी रची गई हैं, जिनमें प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश भाषा में अनेक कथाओं का संग्रह किया गया है. एक रीति से माना जाय तो ये टीकाएं कथा-कोशरूप ही हैं.
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