Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७२८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
के समयनिर्णय के लिए उपयुक्त होने की सम्भावना है. इस चूर्णि की प्रति जैसलमेर के जिनभद्रीय ज्ञानभण्डार में सुरक्षित है. इसका प्रकाशन प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी की ओर से मेरे द्वारा सम्पादित हो कर शीघ्र ही प्रकाशित होगा. (३१) संघदासगणि क्षमाश्रमण ( वि० वीं शताब्दी -- ये आचार्य वसुदेवहिंडी --- प्रथम खण्ड के प्रणेता संघदासगण वाचक से भिन्न हैं एवं इनके बाद के भी हैं. इन्होंने कल्पलघुभाष्य और पंचकल्पमहाभाष्य की रचना की है. वे महाभाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के पूर्ववर्ती हैं.
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(३२) जिनमथि समाश्रमण (वि० की डी शती) ये सैद्धान्तिक आचार्य थे. इनकी महाभाष्यकार एवं भाष्यकार के रूप में प्रसिद्धि है. दार्शनिक- गम्भीरचिन्तनपरिपूर्ण विशेषावश्यक महाभाष्य की रचना ने इन्हें बहुत प्रसिद्ध किया है. केवलज्ञान और केवलदर्शन विषयक युगपदुपयोगद्वयवाद एवं अभेदवाद को माननेवाले तार्किक आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी के मत का इन्होंने उपर्युक्त भाष्य एवं विशेषणवती ग्रन्थ में निरसन किया है. जीतकल्पसूत्र, बृहत्संग्रहणी, बृहत्क्षेषसमास, अनुयोगद्वारचूर्णिगत अंगुनपदचूर्णि और विशेषावश्यक स्वोपज्ञवृत्ति पष्ठगरबाद व्याख्यानपर्यन्त - इनके इतने ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं.
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कोट्टार्यवादिगणी
(२३) कादादिगणी क्षमाश्रमण (वि० २४० के बाद इन आचार्य ने जिनभद्रगणि को स्वोपज्ञ वृत्ति की अपूर्ण रचना को पूर्ण किया है. इन्होंने अनुसन्धित अपनी इस वृत्ति में यह सूचित किया है "निर्माप्य षष्ठगणधर - व्याख्यानं किल दिवंगता पूज्याः " अर्थात् छठे गणधरवाद का व्याख्यान करके पूज्य जिनभद्रगणी स्वर्गवासी हुए. आगे की वृत्ति का अनुसन्धान इन्होंने किया है. इस रचना के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई रचना नहीं मिली है. यह स्वोपज्ञ-वृत्ति ला० द० विद्यामन्दिर, अहमदाबाद की ओर से प्रकाशित होगी.
(३४) सिद्ध नगरि क्षमाश्रमण (वि० छठी शती) - इनकी आज कोई स्वतन्त्र रचना प्राप्त नहीं है. इनके रचे हुए कुछ सन्दर्भ जो निर्मुक्ति, भाष्य आदि के व्याख्यानरूप गाथासन्दर्भ हैं, निशीथणि व आवश्यकण में मिलते हैं. निशीयचूर्णि में इनका नाम एवं गाथाएँ छः जगह उल्लिखित हैं, जिनके भद्रबाहुकृत नियुक्तिगाथाओं तथा पुरातनगाथाओं के व्याख्यानरूप होने का निर्देश है. आवश्यकचूर्णि में (विभाग २, पत्र २३३ ) इनके नाम के साथ दो व्याख्यान-गाथाएँ दी गई हैं. पंचकल्पचूर्णि में भी "उक्तं च सिद्ध सेन्क्षमाश्रमण गुरुभिः " ऐसा लिख कर इनकी एक गाथा का उद्धरण किया है. इन उल्लेखों से पता चलता है कि इनकी आगमिक व्याख्यानगर्भित कोई कृति या कृतियाँ अवश्य होनी चाहिए जो आज उपलब्ध नहीं हैं.
(३५) सिद्धसेनगण (वि० सं० छठी शती) - इनकी एक ही कृति प्राप्त हुई है जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत जीतकल्प पर रचित चूणि. उपर्युक्त सिद्धसेनगणी क्षमाश्रमण से ये सिद्धसेन गणि भिन्न है.
(३६) जिनदासगणी महत्तर ( वि० ७वीं शताब्दी) - निशीथचूर्णि के प्रारम्भिक उल्लेखानुसार इनके विद्यागुरु प्रद्युम्नगणी क्षमाश्रमण थे. आज जो चूर्णियां उपलब्ध हैं इनमें से नन्दी, अनुयोगद्वार और निशीथ की चूर्णियां इन्हीं की रचनाएं हैं.
( ३७ ) गोपालिक महत्तर शिष्य ( वि० वीं शताब्दी ) – उत्तराध्ययनचूर्णि के रचयिता आचार्य ने अपने नाम का निर्देश
न कर 'गोपालिक मह्त्तरशिष्य' इतना ही उल्लेख किया है. इनकी अन्य कोई रचना उपलब्ध नहीं है.
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(२८) विभट या जिनभद्र (वि. गर्मी शताब्दी ) हरिभद्र ने इनका नामोल्लेख किया है. एतद्विषयक सारिणो विद्याधरकुल तिलकाचार्य जिनदत्त शिष्यस्य में जिननिगदानुसारिणः वाक्य विद्यागुरुत्व का सूचक है प्रत्यन्तरों में जिनमेंट' के बजाय 'जिनभव' नाम भी मिलता
ये हरिभद्र के विद्यागुरु थे. आवश्यक वृति के अन्त में आचार्य पुष्पिका इस प्रकार है "कृतिः सिताम्बराचार्य जिनभट निगदानधर्मतो याकिनीमहत्तरासूनोरल्पमते राचार्य हरिभद्रस्य." इस उल्लेख
है. "गुरुवस्तु व्याचक्षते" ऐसा लिखकर कई जगह हरिभद्रसूरि ने अपनी कृतियों में इनके मन्तव्य का निर्देश किया है. (३६) हरिभर (वि०वीं शताब्दी) – इनका उपनाम 'भवविरह' भी है. अपनी कृतियों में इन्होंने 'भवविरह'
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