Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७१६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
(२) शय्यंभव (वीर नि० ८३ में दिवंगत :)-अपने पुत्र मनक के लिए दशवकालिक की रचना कर इन्होंने जैन श्रमणों के आचार का आचारांग के बाद एक नया सीमास्तम्भ डाला है, इसकी रचना के बाद इतना महत्त्व बड़ा कि जैन श्रमणों को प्रारम्भ में जो आचारांगसूत्र पढ़ाया जाता था उसके स्थान पर यही पढ़ाया जाने लगा (व्यवहारभाष्य० उ० ३, गा० १७६) इतना ही नहीं, पहले जहाँ आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के बाद श्रमण उपस्थापना का अधिकारी होता था वहाँ अब दशवकालिक के चौथे षड्जीवनिकाय नामक अध्ययन के बाद उपस्थापना के योग्य समझा गया (वही गा० १७४). पहले जहाँ आचारांग के द्वितीय अध्ययन के पंचम उद्देशगत आमगंध सूत्र के अध्ययन के बाद श्रमण पिण्डकल्पी होता था वहाँ अब दशवकालिक के पंचम पिण्डैषणा नामक अध्ययन की वाचना के बाद श्रमण पिण्डकल्पी होने लगा (वही, गा० १७५). दशवकालिकसूत्र दिगम्बरों (सर्वार्थसिद्धि १-२०) एवं यापनीयों को भी बहुत समय तक समान रूप से मान्य रहा है, यह भी इसकी विशेषता है. (३) प्रादेशिक प्राचार्य-जिनके नाम का तो पता नहीं किन्तु जो विभिन्न देशों में आगमों की प्रवर्तमान व्याख्याओं के प्रवर्तक रहे उनका परिचय तत्तद्देश-प्रदेश से सम्बद्ध रूप से मिलता है. अतएव मैंने उन्हें “प्रादेशिक आचार्य" की संज्ञा दी है. सूत्रकृतांग की चूणिमें (पत्र. ६०) 'पूर्वदिग्निवासिनामाचार्याणामर्थः. प्रतीच्या-ऽपरदिग्निवासिनस्त्वेवं कथयन्ति' इस प्रकार पौरस्त्य पाश्चात्य एवं दाक्षिणात्य आचार्यों का उल्लेख पाया जाता है. व्यवहारसूत्र की चूणि में "एके आचार्या लाटा एवं ब्रुवतेण्हा-णविवज्ज वरणेवच्छं कीरति. अपरे आचार्या दाक्षिणात्या ब्रुवते-युगलं णियंसाविज्जति" इस प्रकार दाक्षिणात्य और लाटदेश में विचरने वाले आचार्यों का उल्लेख मिलता है. कल्पचूणि एवं निशीथचूणि में (भाग २ पत्र० १३४) भी लाटाचार्य का उल्लेख प्राप्त होता है. यहाँ लाटदेश भगवान् महावीर के बिहार में वर्णित लाढदेश नहीं, किन्तु गुजरात में महानदी और दमण के बीच के प्रदेश को समझना चाहिए, जिसके प्रमुख नगर भृगुकच्छ (भरुच) और दर्भावती (डभोई) आदि थे. भारतीय विद्याभवन के आचार्य पद्मश्री मुनिजिनविजयजी सम्पादित पुस्तकप्रशस्ति संग्रह पृष्ठ १०७ प्रशस्तिक्रमांक ६६ आदि में "श्री वोसरि लाटदेशमण्डले महीदमुनयोरन्तराले समस्तव्यापारान् परिपन्थयति' इत्यादि उल्लेख भी पाये जाते हैं. जिनागमविषमपदपर्याय में पंचकल्प के विषमपदपर्याय में "लाडपरिवाडीए लाडवाचनायामित्यर्थः" ऐसा उल्लेख है. इसी प्रकार इसी ग्रन्थ में निशीथसूत्र के विषमपदपर्याय में "लाडाचार्याभिप्रायात्. माधुराचार्याभिप्रायेण परओ राईए चिन्ताऽस्माकम्" इस तरह माथुराचार्य का भी उल्लेख पाया जाता है. इसी तरह षट्खण्डागम की धवला टीका में उत्तर प्रतिपत्ति व दक्षिणप्रतिपत्ति रूप से जो दो प्रकार की प्रतिपत्तियों का उल्लेख है वह भी मूलतः तत्तत्प्रदेश के आचार्यों को विशेष रूप से मान्य होने वाली परम्परा का ही निर्देश है (षट्खण्डागम भा० १ भूमिका-पृ० ५७ तथा भा० ३ भूमिका पृ० १५). धवलाकार ने इनका जो अर्थ किया है वह इस प्रकार है; “एसा दक्षिणपडिवत्ती । दक्खिणं उज्जुवं आयरियपरम्परागदमिदि एयो ।।................एसा उत्तरपडिवत्ती. उत्तरमणुज्जुवं आयरियपरम्पराए णागदमिदि एयट्ठो ॥"-षट्खण्डागमः धक्ला, भा० ५, पृ० ३२. इससे प्रतीत होता है कि धवलाकार के समक्ष दक्षिणप्रतिपत्ति की मान्यता परम्परागत थी जब कि उत्तरप्रतिपत्ति परम्परागत नहीं थी. (४) पांच सौ आदेशों के स्थापक-स्थविर आर्य भद्रबाहुस्वामी ने आवश्यकनियुक्ति की १०२३ वी गाथा में "पंचसयादेसवयणं व" इस गाथांश से पांच सौ आदेशों का निर्देश किया है. आवश्यकचूर्णिकार श्री जिनदासमहत्तर तथा वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि ने “पांच सौ आदेश" के विषय में लिखा है; "अरिहप्पवयरणे पंच प्रादेससताणि. ण वि अंगे ण वि उवंगे पाढो अस्थि एवं-मरुदेवा अणादि-वणस्सइकाइया अणंतरं उब्वट्टित्ता सिद्धत्ति १। तहा सयंभूरमणमच्छाण पउमपत्ताण य सव्वसंठाणाणि वलयसंठाणं मोत्तुं २ । करड-उक्करडा य कुणालाए एते जधा तथा भणामि-करड
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