Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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७२२ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : चतुर्थ अध्याय
वालभी या नागार्जुनी वाचना के प्रवर्तक थे. दोनों ही समकालीन स्थविर आचार्य थे. इनके युग में भयंकर दुर्भिक्ष उपस्थित होने के कारण जैन श्रमणों को इधर-उधर विप्रकीर्ण छोटे-छोटे समूहों में रहना पड़ा. श्रुतधर स्थविरों की विप्रकृष्टता एवं भिक्षा की दुर्लभता के कारण जैनश्रमणों का अध्ययन-स्वाध्यायादि भी कम हो गया. अनेक श्रुतधर स्थविरों का इस दुर्भिक्ष में देहावसान हो जाने के कारण जैन आगमों का बहुत अंश नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-भिन्न एवं अस्तव्यस्त हो गया. दुर्भिक्ष के अन्त में ये दोनों स्थविर, जो कि मुख्य रूप से श्रुतधर थे, बच रहे थे किन्तु एक-दूसरे से बहुत दूर थे. आर्य स्कन्दिल मथुरा के आस-पास थे और आर्य नागार्जुन सौराष्ट्र में. दुर्भिक्ष के अन्त में इन दोनों स्थविरों ने वी० सं० ८२७ से ८४० के बीच किसी वर्ष में क्रमश: मथुरा व वलभी में संघसमवाय एकत्र करके जैन आगमों को जिस रूप में याद था उस रूप में ग्रन्थरूप से लिख लिया. दोनों स्थविर वृद्ध होने के कारण परस्पर मिल न सके. इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों के शिष्य-प्रशिष्यादि अपनी-अपनी परम्परा के आगमों को अपनाते रहे और उनका अध्ययन करते रहे. यह स्थिति लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक रही. इस समय तक कोई ऐसा प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति नहीं हुआ जो आगमों के इस पाठभेद का समन्वय कर पाता. इसी कारण आगमों का व्यवस्थित लेखन आदि भी नहीं हो सका. जो कुछ भी हो आज जो जैनागम विद्यमान हैं वे इन दोनों स्थविरों की देन हैं.
(२१) स्थविर आर्य गोविंद ( वीर नि० ८५० से पूर्व ) – ये पहले बौद्ध आचार्य थे और बाद में इन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया था. इन्होंने गोविन्दनियुक्ति की रचना की थी जिसमें पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि की सजीवता का निरूपण किया गया है. यह निर्युक्ति किस आगम को लक्ष्य करके रची गई, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता. फिर भी अनुमान होता है कि यह आचारांगसूत्र के प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा अथवा दशर्वकालिकसूत्र के चतुर्थ अध्ययन छज्जीवणिया को लक्ष्य करके रची गई होगी. आज इस नियुक्ति का कहीं पर भी पता नहीं मिलता है. आचार्य गोविंद के नाम का उल्लेख दशवेकालिकसूत्र के चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में आचार्य हरिभद्र ने भाष्यगाथा के नाम से जो गाथाएं उद्धृत कर व्याख्या की है उसमें "गोविंदवायगो विय जह परपक्वं नियत्तेइ " (पत्र० ५३,१ गा० ८२ ) इस प्रकार उल्लेख आता है. आचार्य हरिभद्र 'गोविंदवायग' इस प्राकृत नाम का संस्कृत में परिवर्तन 'गोपेन्द्र वाचक' नाम से करते हैं. आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने अपने योगबिन्दु ग्रन्थ में गोपेन्द्र के नाम से जो अवतरण दिये हैं, वे संभव है कि इन्हीं गोपेन्द्र वाचक के हों. जैन आगमों के भाष्य में इन गोविन्द स्थविर का उल्लेख 'ज्ञानस्तेन' के रूप में किया गया है. इसका कारण यह है कि ये पहले जैनाचार्यों की युक्ति प्रयुक्तियों को जानकर उनका खण्डन करने की दृष्टि से ही दीक्षित हुए थे, किन्तु बाद में उनके हृदय को जैनाचार्यों की युक्ति प्रयुक्तियों ने जीत लिया जिससे वे फिर से दीक्षित हुए और महान् अनुयोगधर हुए. नंदीसूत्र की प्रारंभिक स्थविरावली में इनका परिचय गाथा के द्वारा इस प्रकार दिया है :
गोविंदारणं पिणमो अजोगे विउस पारणिदाणं । निच्चं खंति - दयाणं परूवणादुल्लभिदारणं ॥
(२२,२३) देवर्धिगणि व गन्धर्व वादिवेताल शांतिसूरि (वीर नि० ६६३ ) – देवधिगणि क्षमाश्रमण माथुरी वाचनानुयायी प्रतिभासम्पन्न समर्थ आचार्य थे. इन्हीं की अध्यक्षता में वलभी में माथुरी एवं नागार्जुनी वाचताओं के वाचनाभेदों का समन्वय करके जैन आगम व्यवस्थित किये गये और लिये भी गये. गन्धयं वादिवेताल शान्तिसूरि बातमी वाचना नुयायी मान्य स्थविर थे. इनके विषय में
वालब्भसंघकज्जे उज्जमियं जुगपहाणतुल्लेहि । गंधभ्ववाइवालसंतिसूरीहि
बलहीए |
इस प्रकार का प्राचीन उल्लेख भी पाया जाता है. इस गाथा में 'वलभी में वालभ्यसंघ के कार्य के लिए गन्धर्व वादिवेताल शान्तिसूरि ने प्रयत्न किया था ऐसा जो उल्लेख है वह वालभ्यसंघ कार्य वालभी-वाचना को लक्ष्य करके ही अधिक संभवित है. अन्यथा 'वालभ्यसंघकज्जे' ऐसा उल्लेख न होकर 'संघकज्जे' इतना ही उल्लेख काफी होता. इस उल्लेख से प्रतीत होता है कि श्रीदेवधिराणि क्षमाश्रमण को माथुरी वालभी वाचनाओं को व्यवस्थापित करने में इनका प्रमुख
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