Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
थे. अपने इस अभिप्राय का स्पष्टीकरण आचार्य विद्यानन्द इस प्रकार करते हैं-- 'शास्त्रावतार-रचितस्तुतिगोचराप्तमीमांसितमिदं शास्त्र देवागमाभिधानमिति निर्णयः' (अष्टशती, पृ०३). अब अकलंकोक्त उस मंगलपुरस्सर-स्तव तथा स्वोक्त शास्त्रावताररचितस्तुति का समन्वय करते हुए आचार्य विद्यानन्द कहते हैं-'मंगलपुरस्सरस्तवो हि शास्त्रावताररचितस्तुतिरुच्यते. मंगलं पुरस्सरमस्येति मंगलपुरस्सरः शास्त्रावतारकालस्तत्र रचितः स्तवो मंगलपुरस्सरस्तव इति व्याख्यानात्' (अष्टसहस्री, पृ० ३). शास्त्रावतार के समय मंगलाचरण किया जाता है, अतएव 'मंगलपुरस्सर' शब्द का अर्थ हुआ शास्त्रावतारकाल. शास्त्रावतारकाल में रचित स्तव ही मंगलपुरस्सरस्तव है. अब प्रश्न उठता है, वह कौन शास्त्र है, जिसके अवतारकाल में वह स्तव किया गया है जिसमें आप्त की स्तुति की गई है ? इसका आनुषंगिक उत्तर आचार्य विद्यानन्द के इस वाक्य से मिलता है-'तदेवं निश्श्रेयसशास्त्रस्यादौ तन्निबन्धनतया मंगलार्थतया च मुनिभि. संस्तुतेन निरतिशयगुणेन' भगवताप्तेन-(अष्टशती' पृ० ३). अर्थात् वह निश्श्रेयसशास्त्र है जिसके आदि में प्रस्तुत स्तव किया गया है. यह निश्श्रेयस-शास्त्र का अर्थ है मोक्षशास्त्र या तत्त्वार्थशास्त्र. इसी स्तव के बारे में आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टशती का उपसंहार करते हुए लिखते हैं-'शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूभद्देत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च भगवदर्हत्सर्वज्ञस्यैवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापरा परीक्षेयं विहिता इति स्वाभिप्रेतार्थनिवेदन-माचार्याणामा विचार्य प्रतिपत्तव्यम् (अष्टशती, पृ० २६४). अब हम आप्तपरीक्षगत उन दो पद्यों पर विचार करेंगे जिनमें 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक में प्रतिपादित आप्त की मीमांसा स्वामी समन्तभद्र द्वारा किये जाने का तथा तत्त्वार्थशास्त्र के आदि में इस स्तव के पाये जाने का उल्लेख है. वे पद्यद्वय इस प्रकार हैं :
श्रीमत्तत्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य । प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैःकृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथं स्वामि-मीमांसितं तद् । विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धय । इति तत्वार्थशास्त्रादौ मुनीन्द्र-स्तोत्र-गोचरा ।
प्रणीताप्तपरीक्षेयं विवाद-विनिवृत्तये । प्रथम पद्य में श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्र की तुलना प्रकाशमान रत्नों के उद्भवस्थान समुद्र से की गई है. यहाँ श्रीमत् शब्द मननीय है. हम देख आये हैं. तत्त्वार्थशास्त्र एवं तत्त्वार्थसूत्र शब्दों का प्रयोग आचार्य विद्यानन्द ने व्यापक अर्थ में किया है. संभवतः उस व्यापक अर्थ के व्यवच्छेद के लिए यहां श्रीमत् विशेषण का प्रयोग किया गया है, जिससे श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्र शब्द द्वारा आचार्य उमास्वामिविरचित तत्त्वार्थसूत्र का बोध हो सके. यहाँ प्रोत्थान शब्द भी विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. उत्थान शब्द का अर्थ है. पुस्तक अतएव प्रोत्थान शब्द का अर्थ हुआ प्रकृष्ट उत्थान अर्थात् वृत्ति या व्याख्यान.3 अतएव प्रोत्थानारम्भकाले' का अर्थ हुआ 'व्याख्यानारम्भकाले'. उक्त पद्यमें 'स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथितपृथुपथम्' द्वारा प्रशस्तमोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाले स्तोत्र ('मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक) की तुलना उद्भासित-विस्तीर्ण-सोपानयुक्त तीर्थ से की गई है. पद्यगत सलिलनिधि शब्द तथा श्लिष्ट प्रोत्थान शब्द आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के निम्नोक्त स्तोत्रान्तर्गत महार्णव तथा उत्थान शब्द का संस्मरण कराता है:
१. आप्तपरीक्षा, पृ० २६५. २. देखो, आचार्य हेमचन्द्रविरचित अनेकार्थ संग्रह, तृतीय काण्ड, ३८७-८
....."उत्थानं सैन्ये पौरुषे युधि पुस्तके, उद्यमोद्गमहर्षेषु वास्त्वन्तेऽऽगनचैत्ययोः ।
मलोत्मनें........ . . . . . . . .""देखो-मेदिनी, नान्तवर्ग ४१, विश्वकोश-महेश्वरकृत, ५८.. ३. इस प्रसंग में उत्तराध्ययन सूत्र, २०१६ का पोत्थ शब्द विचारणीय है. देखो शिष्यहिता व्याख्या तथा सन्टियर कृत नोंध.
KAHANI
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