Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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पं. भगवानदास जैन : प्राचीन वास्तुशिल्प : ६७१
गृह में प्रवेश करने के चार प्रकार बतलाये हैं : १. गृह का द्वार और प्रथम प्रवेश द्वार, ये दोनों एक ही दिशा में बराबर सामने हों तो उसको 'उत्संग' नामका प्रवेश
माना है. यह सौभाग्यकारक, प्रजावृद्धिकारक और धनधान्य का वृद्धिकारक है. २. प्रवेश द्वार से प्रविष्ट होने के बाद बाँयी ओर हो करके मुख्य गृह में प्रवेश हो तो वह 'हीन बाहु' नाम का प्रवेश
माना है. यह स्वल्प धन वाला, स्वल्प मित्र वाला और रोगकारक माना है. ३. प्रवेश द्वार से प्रविष्ट होने के बाद दाहिनी ओर होकर के मुख्य गृह में प्रवेश होना 'पूर्ण बाहु' प्रवेश माना है. यह
धन-धान्य की और पुत्रपौत्र का वृद्धि कारक है. ४. प्रथम गृह के पीछे की दीवार को देख करके पीछे प्रवेश होवे यह 'प्रत्यक्षाय' नाम का प्रवेश माना है, यह सर्वथा
निंदनीय है. गृह की ऊँचाई चारों दिशाओं में बराबर रखना चाहिए. यदि आगे के भाग में गृह ऊँचा हो और तीनों दिशाओं में नीचा हो तो वह गृह धन का हानिकारक होता है. दाहिनी ओर ऊँचा हो तो धन समृद्धि बढ़ाने वाला माना है. पीछे के भागमें ऊँचा हो तो समृद्धि बढ़ाने वाला है और बाँयी और ऊँचा हो तो वह गृह शून्य रहता है. गृह में मुख्य सात प्रकार के वेध बतलाये हैं--जैसे :
'तलवेह कोणवेह तालुयवेहं कबालवेहं च ।।
तह थंभ तुलावहं दुवारवेहं च सतमयं ।' तलवेध, कोणवेध, तालुवेध, कपालवेध, स्तंभवेध, तुलावेध और द्वारवेध-ये सात प्रकार के बेध है. १. गृह की भूमि सम विषम ऊंची नीची हो, द्वार के सामने घानी, अरहट, कोल्हू आदि हो और दूसरे के मकान का
पानी का परनाला अथवा रास्ता हो तो यह तलवेध माना जाता है. २. मकान के चारों कोने समानान्तर न हों आगे पीछे हों तो वह कोणवेध है. ३. मकान के एक ही खंड में ऊपर की छत की पट्टियाँ ऊँची नीची हों तो यह तालुवेध माना है. ४. द्वार के ओतरंग के मध्य भाग में पाट आवे तो उसको कपालवेध कहते हैं. ५. गृह के मध्य भाग में एक स्तंभ हो अथवा अग्नि और पानी का स्थान हो तो यह हृदयशल्य अथवा स्तंभ वेध कहा
जाता है. ६. मकान के नीचे के और ऊपर के मंजिल के पटिया न्यूनाधिक हों तो यह तुलावेध माना है. ७. मकान के दरवाजे के सामने कोई वृक्ष, कुआँ, स्तंभ, कोना और कील आदि हो तो यह द्वारवेध कहा जाता है. परतु मकान की ऊँचाई से दुगुनी भूमि छोड़ करके उपर्युक्त कोई वेध हो तो दोष नहीं माना जाता. इन वेधों का फल वास्तुशास्त्र वत्थुसारपयरण में इस प्रकार लिखा है
'तलवेहि कुट्ठरोगा हवंति उच्चेय कोणवेहम्मि । तालुयबेहेण भयं कुलक्खयं थंभवेहेण । कापालु तुलावेहे धणनासो हवइ रोरभावो ।
इअ वेहफलं नाउं सुद्धं गेहं करेअव्वं ।' तलवेध से कुष्ठरोग, कोण वेध से उच्चाटन, तालुवेध से भय, स्तंभ के वेध से कुलक्षय, कपाल और तुलावेध से धन का विनाश और दरिद्र भाव होता है. यह भी बतलाया गया है-दूसरे के मकान में जाने के लिये अपने मकान में से रास्ता हो तो विनाशकारक है. वृक्ष का वेध हो तो संतात की वृद्धि न हो. कीचड़ का वेध हो तो शोक हुआ करता है. परनाले का वेध हो धन का विनाश
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