Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६७६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
जा चुका है, उनके समय में समाज नेतृत्वहीन था एवं भट्टारकों का भी कोई खास प्रभुत्व नहीं था. धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में शिथिलाचार घर कर गया था. यह सब कुछ पंडितजी की सहनशक्ति के बाहर था. असाधारण विद्वत्ता के कारण आपका नाम छोटीसी अवस्था में ही सर्वत्र फैल गया था. आप जयपुर के १३ पंथियों के बड़े मंदिर में शास्त्र प्रवचन करते थे एवं स्थानीय सैकड़ों श्रावक शास्त्रश्रवण करने आते थे. आपकी विद्वत्ता एवं विवेचन शक्ति की धाक इतनी फैल गई थी कि बाहर के लोग भी तत्वचर्चा सीखने यहाँ आते थे. बसवा निवासी पंडित देवीदास गोधा भी कुछ दिनों के लिए आपके सान्निध्य में रहे थे. भाई रायमल्ल की चिट्ठी से ज्ञात होता है कि इन प्रवचनों का लाभ उठाकर सैकड़ों भाई उस समय गोम्मटसारादि सिद्धांत ग्रंथों की गूढ़ चर्चाएँ समझने लगे थे. कुछ बाइयाँ भी पढ़ने एवं तत्त्वचर्चा करने लगी थीं. पंडितजी के प्रवचनों से लोग धर्म का असली स्वरूप समझने लगे थे. पंडितजी को अज्ञानी भाइयों की धर्मविरुद्ध क्रियाएँ देखकर दुःख हुआ और उनके हृदय में एक ठेस लगी. उन्होंने पाखण्ड के विरुद्ध आवाज उठाई. वे निर्भीक लेखक एवं वक्ता थे. स्वयं परम्परागत आम्नाय' का मोह छोड़ा और सत्य को परखा. अपने द्वारा रचित मोक्षमार्गप्रकाश में सूक्ष्म और स्पष्टरूप से जैनों के पाखण्ड की आलोचना की. भट्टारकों एवं मुनियों के शिथिलाचार का खुलकर विरोध किया. संभव है इन्हीं कारणों से समाज के काफी लोग उनसे नाराज थे. धार्मिक जगत में उनकी धाक बैठ गयी थी. उनके वचन आचार्यों की तरह प्रामाणिक माने जाने लगे. भूधर मिश्र की चर्चासमाधान की सं० १८१५ की प्रति पर, जो बड़ा मंदिर तेरह पंथियों के भंडार में है, लिखा है कि इस ग्रंथ को जयपुर में पं० टोडरमलजी ने पढ़ा है. इसके २०-३० प्रश्नों का उत्तर तो आम्नाय के अनुसार है शेष उत्तर आम्नाय से मिलता नहीं है. टोडरमलजी भूधरमलजी से विशेष योग्यता वाले हैं, उन्होंने ६०,००० श्लोक प्रमाण ग्रंथों की टीका लिखी है इसलिए उनके वचन प्रमाण हैं, उन्हीं के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए. उनके समय में संवत् १८२९ में जयपुर में एक 'इन्द्रध्वज' पूजा समारोह भी मनाया गया था जिसकी विस्तृत जानकारी भाई रायमल्ल की चिट्ठी में देखें उससे ज्ञात होगा कि पंडितजी की असाधारण विद्वत्ता का कितना मूल्य था. राज्य में भी उनकी मान्यता थी.
मृत्युः - यह सब कुछ होने पर भी उनकी मृत्यु एक असाधारण एवं अद्वितीय रोमांचकारी घटना थी. संवत् १८२३२४ में शैवों ने जयपुर में षड्यंत्र रचा. उसमें सभी जैनों को तो कष्ट हुआ ही, किन्तु टोडरमलजी की मृत्यु की दुःखद घटना भी हुई. संवत् १८१८ में श्यामनारायण तिवारी राज-गुरु बना. उसने जैनों पर बड़े उपद्रव किये तथा सैकड़ों मंदिर नष्ट किये. यह उपद्रव डेढ़ वर्ष तक रहा. इसके बाद फिर मिति मगसर बदी २ संवत् १८२४ को राज्य की ओर से जैन मंदिरों को यथावत् रहने देने का हुक्म जारी हुआ. पुनः धर्म की प्रभावना हुई. विरोधियों के हृदय में द्वेष की ज्वाला पुनः भड़की. इसी बीच शास्त्र श्रवण के लिये टोडरमलजी के पास कुछ अजैन भाई भी आने लगे थे. इस प्रभाव को खत्म करने के लिये कार्तिक सुदी ५ सं० १८२४ को शैवों ने एक शिवपिंड उखाड़ दिया और उसके लिये जैनों को बदनाम किया. इस पर राजकीय कोप बढ़ा और राजाज्ञा से जैनों के कुछ मुखिया कैद कर लिये गये. उस घटना का वर्णन सांगाकों के मंदिर के एक गुटके में निम्न प्रकार है- "मिती काती सुदी ५ न महादेव की पिंडि सहर मांहि कछु अमारगी उपाडि नाखि तिहि परि राजा दोष करि सुरावग धर्म्यं परि दंड नाख्यो" लोगों के बहकाने से तत्कालीन जयपुर नरेश (माधव सिंह जी प्रथम षड्यंत्र को नहीं समझ सके और पंडितजी को प्राणदंड की सजा दी. कहा जाता है कि पंडित जी को हाथी के पैर से कुचलवा कर उनके शव को रोडी में गड़वा दिया. इस प्रकार २८ - २० वर्ष की अवस्था में ही महान् साहित्यसेवी पं० टोडरमलजी सदा के लिये संसार से चल बसे. इनकी आकस्मिक मृत्यु से पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय एवं मोक्षमार्गप्रकाशक अधूरे ही रह गये.
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पंडितजी केवल अध्यात्म ग्रंथों के ही रसिक नहीं थे किन्तु छंद, अलंकार, व्याकरण, गणित, सिद्धांत दर्शन आदि के भी पूरे जानकार थे. आपकी भाषा में सरलता, सरसता एवं मधुरता है और पद-पद में 'सत्यं शिवं सुन्दरं' के दर्शन होते हैं बोल चाल की भाषा में पाठकों से तत्त्वचर्चा करते हुए आगे बढ़ना आपका विशेष गुण था.
१. वीरवाणो वर्ष १ अंक- १६-२१ पृष्ठ २८४.
२. पंडित जी मूलतः बीस पन्थी थे किन्तु बाद में वे सुधारक (तेरह पन्थी) शुद्धाम्नाय के बन गये.
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