Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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परमानन्द जैन : मध्यभारत का जैन पुरातत्त्व : ७०१
है और वह उसे अपनी ओर आकृष्ट करता हुआ उसे देखने की बार बार उत्कण्ठा उत्पन्न कर रहा है. मूत्ति के अगल बगल में अनेक सुन्दर मूर्तियां विराजित हैं जिनकी संख्या अनुमानतः २५ से कम नहीं जान पड़ती. यहां सहस्रों मूत्तियां खण्डित हैं. सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण बहुत बारीकी के साथ किया गया है. इस मंदिर के दरवाजे पर एक चौंतीसा यंत्र है, जिसमें सब तरफ से अंकोंको जोड़ने पर उनका योग चौतीस होता है. यह यंत्र बड़ा उपयोगी है. जब कोई बालक बीमार होता है तब उस यन्त्र को उसके गले में बांध दिया जाता है ऐसी प्रसिद्धि है. भगवान् शान्तिनाथ की इस मूति के नीचे निम्न लेख अंकित है, जिससे स्पष्ट है कि यह मूर्ति विक्रम की ११ वीं शताब्दी के अन्तिम चरण की हैः । सं १०८५ श्रीमान् आचार्यपुत्र श्रीठाकुर देवधर सुत श्री शिविधीचन्द्रेयदेवा: श्री शान्तिनाथस्य प्रतिमा कारितेति." खजुराहे की खंडित मूर्तियों में से कुछ लेख निम्न प्रकार हैं : १–सं० ११४२ श्री आदिनाथाय प्रतिष्ठाकारक श्रेष्ठी वीवनशाह भार्या सेठानी पद्मावती. चौथे नं० की वेदी में कृष्ण पाषाण की हथेली और नासिका से खण्डित जैनियों के बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की एक मूर्ति है. उसके लेख से मालूम होता है कि यह मूर्ति विक्रम की १३ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रतिष्ठित हुई है. लेख में मूलसंघ देशीगण के पंडित नागनन्दी के शिष्य पं० भानुकीति और आर्यिका मेरुश्री द्वारा प्रतिष्ठित कराये जाने का उल्लेख किया गया है. वह लेख इस प्रकार है : 'सं० १२१५ माघ सुदी ५ रवी देशीयगणे पंडित नाह [ग] नन्दी तच्छिष्यः पंडित श्री भानुकीति आर्यिका मेरुश्री प्रतिनन्दंतु'. इस तरह खजुराहा स्थापत्यकला की दृष्टि से अत्यन्त दर्शनीय है. महोवा- इसका प्राचीन नाम काकपुर,पाटनपुर और महोत्सव या महोत्सवपुर था. इस राज्यका संस्थापक चंदेलवंशी राजा चन्द्रवर्मा था जो सन् ८०० में हुआ है. इस राज्य के दो राजाओं का नाम खूब प्रसिद्ध रहा है. उनका नाम कीर्तिवर्मा और मदनवर्मा था. ईस्वी सन् ६०० के लगभग राजधानी खजुराहा से महोवा में स्थापित हो गई थी. कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में इसका नाम 'जंजाहुति' दिया है. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी अपने यात्राविवरण में, 'जैनाभुक्ति' का उल्लेख किया है. यहां की झीलें प्रसिद्ध हैं. यहां नगर में हिन्दू और मुसलमानों के स्मारक भी मिलते हैं. जैन संस्कृति की प्रतीक जैन मूर्तियां भी यत्र-तत्र छितरी हुई मिलती हैं. कुछ समय पहले खुदाई करने पर यहां बहुत-सी जैन मूर्तियाँ मिली थीं, जो संभवतः सं० १२०० के लगभग थीं. उनमें से एक ललितपुर क्षेत्रपाल में और शेष बांदा में विराजमान हैं. यहां एक २० फुट ऊंचा टीला है. वहां से अनेक खण्डित जैन मूर्तियां मिली हैं. महोवा के आस-पास के ग्रामों और नगरों में भी अनेक ध्वस्त जैनमंदिर और मूर्तियां उपलब्ध होती हैं. उन खण्डित मूर्तियों के आसनों पर जो छोटे-छोटे लेख मिले हैं, उनमें से कुछ लेखों का सार निम्न प्रकार है: १- 'संवत् ११६६ राजा जयवर्मा. २-सं० १२०३. ३-श्री मदनवर्मा देवराज्ये सं० १२११ आषाढ़ सु० ३ शनौ देव श्रीनेमिनाथ, रूपकार लक्ष्मण. ४-सुमतिनाथ सं० १२१३ माघ सु० दू० गुरौ, ५-सं० १२२० जेठ सुदी ८ रवी
२. व्यमूर्तिस्व (शी) ल स (श) म दमगुणयुक्त सर्व ३. सत्वानुकंपो (ix) खजनिततोषो घांगराजेन ४. मान्यः प्रणमति जिननाथोयं भव्च (व्य) पाहिल (ल्ल). ५. नामा. (ii) १|| पाहिलवाटिका १ चन्द्रवाटिका. ६. लघुचन्द्रवाटिका ३ सं० (शं) करवाटिका ४ पंचाइ ७. तलुवाटिका ५ आम्रवाटिका ६५ () गवाड़ी ७ (iix). ८. पाहिलवंसे (शे) तुक्षये क्षीणे अपरवेशो यः कोपि. ६. तिष्ठति (ix) तस्य दासस्य दासोयं ममदत्तिस्तु पाल-- १०. येत् ।। महाराज गुरु स्त्री (श्री) वासवचन्द्र (iix)
वेष (शा) प (ख) सुदि ७ सोमदिने.
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