Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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परमानन्द जैन : मध्यभारत का जैन पुरातत्व : ७०७ ग्वालियर के किले का इतिहास-जैन साहित्य में वर्तमान ग्वालियर का उल्लेख गोपायलु, गोपाद्रि, गोपगिरि, गोपाचल
और गोपालगढ़ आदि नामों से किया गया है. ग्वालियर की इस प्रसिद्धि का कारण जहाँ उसका पुरातन दुर्ग (किला) है. वहाँ भारतीय (हिन्दू, बौद्ध और जैनियों के) पुरातत्त्व की प्राचीन एवं विपुल सामग्री की उपलब्धि भी है. भारतीय इतिहास में ग्वालियर का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. वहां पर प्राचीन अवशेषों की कमी नहीं है. उसके प्रसिद्ध सूबों
और किलों में इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है. ग्वालियर का यह किला पहाड़ की एक चट्टान पर स्थित है. यह पहाड़ डेढ़ मील लम्बा और ३०० गज चौड़ा है. इसके ऊपर बलुआ पत्थर की चट्टानें हैं, उनकी नुकीली चोटियाँ निकली हुई हैं, जिनसे किले की प्राकृतिक दीवार बन गई है. कहा जाता है कि इसे सूरजसेन नाम के राजा ने बनवाया था. वहाँ 'ग्वालिय' नाम का एक साधु रहता था, जिसने राजा सूरजसेन के कुष्ट रोग को दूर किया था. अतः उसकी स्मृति में ही ग्वालियर नाम प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है. पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि ग्वालियर के इस किले का अस्तित्व विक्रम की छठी शताब्दी में था, क्योंकि ग्वालियर की पहाड़ी पर स्थित 'मात्रचेता' द्वारा निर्मापित सूर्यमन्दिर के शिलालेख में उक्त दुर्ग का उल्लेख पाया जाता है. दूसरे, किले में स्थित चतुर्भुज मन्दिर के वि० सं० ६३२-३३ के दो शिलावाक्यों में भी उक्त दुर्ग का उल्लेख पाया जाता है. हाँ, शिलालेखों से इस बात का पता जरूर चलता है कि उत्तर भारत के प्रतिहार राजा मिहिर भोज ने जीत कर इसे अपने राज्य कन्नौज में शामिल कर लिया था और उसे विक्रम की ११ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कच्छपघट या कछवाहा वंश के वज्रदामन् नाम के राजा ने, जिसका राज्य शासन १००७ से १०३७ तक रहा है और जो जैनधर्म का श्रद्धालु था, उसने सं० १०३४ में एक जैन मूर्ति की प्रतिष्ठा भी करवाई थी. उस मूर्ति की पीठ पर जो लेख' अंकित है उससे उसकी जैनधर्म में आस्था होना प्रमाणित है. इस वंश के अन्य राजाओं ने जैन धर्मके संरक्षण, प्रचार एवं प्रसार करने में क्या कुछ सहयोग दिया, यह बात अवश्य विचारणीय है और अन्वेषणीय है. कन्नौज के प्रतिहार वंशी राजा से ग्वालियर को जीत कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था. इस वंश के मंगलराज, कीर्तिराज, भुवनपाल, देवपाल, पद्मपाल, सूर्यपाल, महीपाल, भुवनपाल और मधुसूदनादि अन्य राजाओं ने ग्वालियर पर लगभग दो-सौ वर्ष तक अपना शासन किया है, किन्तु बाद में पुन: प्रतिहार वंश की द्वितीय शाखा के राजाओं का उस पर अधिकार हो गया था. परन्तु वि० संवत् १२४६ में दिल्ली के शासक अल्तमस ने ग्वालियर पर घेरा डाल कर दुर्ग का विनाश किया. उस समय राजपूतों ने अपने शौर्य का परिचय दिया परन्तु मुट्ठी भर राजपूत उस विशाल सेना से कब तक लोहा लेते ? आखिर राजपूतों ने अपनी आन की रक्षा के हित युद्ध में मर जाना ही श्रेष्ठ समझा, और राजपूतनियों ने 'जौहर' द्वारा अपने सतीत्व का परिचय दिया. वे अग्नि की विशाल ज्वाला में भस्म हो गई और राजपूत अपनी वीरता का परिचय देते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. किले पर अल्तमस का अधिकार हो गया. सन् १३९८ (वि० सं०१४५५) में तैमूरलंग ने भारत पर जब आक्रमण किया, तब अवसर पाकर तोमरवंशी वीरसिंह नाम के एक सरदार ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया और वह उक्त वंश के आधीन सन् १५३६ (वि० संवत् १५६३) तक रहा. इस क्षत्रिय वंश के अनेक राजाओं ने (सन् १३९८ से १५३६ तक) ग्वालियर पर शासन किया है. उनके नाम वीरसिंह उद्धरणदेव, विक्रमदेव (वीरमदेव), गणपतिदेव, डूंगरसिंह, कीतिसिंह, कल्याणमल मानसिंह, विक्रमशाह, रामसाह, शालिवाहन और इनके दो पुत्र (श्यामसाह और मित्रसेन') हैं. लगभग दो सौ वर्ष के इस राज्यकाल में जैनधर्म को फलने, फूलनेका अच्छा अवसर मिला है. इन सभी राजाओंकी सहानुभूति जैनधर्म, जनसाधुओं और जैनाचार पर रही है
१. संवत् १०३४ श्री बज्रदाम महाराजाधिराज वइखास वदि पाचमि. देखो, जनरल एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल पृ० ४१०-५११. २. यह मित्रसेन शाह जलालुद्दीन के समकालीन थे. इनका वि० सं० १६८८ का एक शिलालेख बंगाल एशियाटिक सोसायटी के जनरल
भा०८ पृ०६६५ में रोहतास दुर्ग के कोथै टिय फाटक के ऊपर की परिया पर तोमर मित्रसेन का शिलालेख जिसे कन्यदेव के पुत्र शिवदेव ने संकलित किया था.
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