Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
हुआ होगा. सं० १३५५ के अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसने चन्देरी के दुर्ग पर विजय प्राप्त की थी, क्योंकि सं० १३५६-५७ के सतीस्तंभों में इसके राज्य का उल्लेख है. जान पड़ता है कि मुसलमानों की विजयवाहिनी से चाहडदेव का वंश समाप्त हो गया. जैनत्व की दृष्टि से नरवर के किले में अनेक जैन मूर्तियाँ खंडित-अखंडित अवस्था में प्राप्त हैं. किले में इस समय ४ मूर्तियां अखंडित हैं जिनपर १२१३ से १३४८ तक के लेख पाये जाते हैं. १. 'सं० १२१३ अषाढ़ सुदि ६. २. सं० १३१६ ज्येष्ठ वदी ५ सोमे. ३. सं० १३४० खैशाख वदी ७ सोमे. ४. सं० १३४८ वैशाखसुदी १५ शनौ'. ये सब मूर्तियाँ सफेद संगमर्मर पाषाण की हैं. खंडित मूर्तियों की संख्या अधिक पाई जाती है. नगर में भी अच्छा मन्दिर है और जैनियों की बस्ती भी है. नगर के आस-पास के ग्रामों आदि में भी जैन अवशेष पाये जाते हैं. जिससे वहां जैनियों के अतीत गौरव का पता चलता है. नरवर से ३ मील की दूरी 'भीमपुर' नामका एक ग्राम है. जहाँ जज्जयेल वंशी राजा आसल्लदेव के एक जैन सामन्त जैत्रसिंह रहते थे. उन्होंने जिनभक्ति से प्रेरित होकर वहाँ एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया था, और उस पर २३ पंक्त्यात्मक करीब ६०-७० श्लोकों के परिमाण को लिये हुए विशाल शिलालेख लगवाया था, जो अब ग्वालियर पुरातत्त्व विभाग के संग्रहालय में मौजूद है. इस लेख में उक्त वंश के राजाओं का उल्लेख है, जैसिंह की धार्मिक परिणति का भी वर्णन है, और नागदेव द्वारा उसकी प्रतिष्ठा के सम्पप्न होने का उल्लेख है. सं० १३१८ का यह शिलालेख अभी तक पूरा प्रकाशित नहीं हुआ. यह लेख जैनियों के लिये महत्वपूर्ण है. पर ऐसे कार्यों में जैन समाज का योगदान नगण्य है. सुहानियां--यह स्थान भी पुरातन काल में जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है और वह ग्वालियर से उत्तर की ओर २० मील, तथा कटवर से १४ मील उत्तर-पूर्व में अहसन नदी के उत्तरीय तट पर स्थित है. कहा जाता है कि यह नगर पहले खूब समृद्ध था और बारह कोश जितने विस्तृत मैदान में आबाद था. इसके चार फाटक थे,जिनके चिह्न आज भी उपलब्ध होते हैं. सुना जाता है कि इस नगर को राजा सूरसेन के पूर्वजों ने बसाया था. कनिंघम साहब को यहाँ वि० सं० १०१३, १०३४ और १४६७ के मूर्तिलेख प्राप्त हुए थे. इस लेख में मध्यभारत के कुछ स्थानों के जैन पुरातत्त्व का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है. उज्जैनी, धारा नगरी और इनके मध्यवर्ती भूभाग अर्थात् समूचे मालव प्रदेश का जो जैन संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है, परिचय देने में एक बड़ा ग्रन्थ बन जायगा.
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