Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रत्नचन्द अग्रवाल : देबारी के राजराजेश्वर मंदिर की अप्रकाशित प्रशस्ति : ६८७
( श्लोक १८ - १६) और उसके पुत्र संग्रामसिंह द्वितीय की ख्याति तो धर्मावतार के रूप में ही थी— उसते सोने के तीन सुलादान सम्पन्न किए थे (लोक २२ ओझा, उपर्युक्त ० ६२१) और औरंगजेब के समय ण्डितांश जगदीशमंदिर का जीर्णोद्धार कराया ( श्लोक २३ ). यहाँ संग्रामसिंह द्वितीय की पर्याप्त प्रशंसा की गई है ( श्लोक २० से २३). उसका पुत्र वीर जग सिंह द्वितीय (श्लोक २४-२७ ) था जिसने जगन्निवास नामक राजमहल का निर्माण कराया था (श्लोक २७, ओझा - पृ० ६३२). जिसकी प्रतिष्ठा संवत् १८०२ में हुई थी. उसका पुत्र प्रतापसिंह द्वितीय था ( श्लोक २८-३१) जो अति प्रतापशाली था. यह केवल अतिशयोक्ति नहीं है. उसका एक मात्र पुत्र था राजसिंह द्वितीय (श्लोक ३२) जिसकी माता की यह प्रस्तुत प्रचरित है.
श्लोक ३२ के उपरान्त राजराजेश्वर मंदिर को बनाने वाली राजमाता बखतकुँवरी (झाला कर्ण की पुत्री व प्रतापसिंह द्वितीय की राणी) के पिता के वंश का परिचय निम्नांकित है:- पश्चिम समुद्र तट पर ( काठियावाड़ में ) झालावाड़ देश में रणछोड़पुरी नाम की नगरी है ( श्लोक ३३-३४), वहाँ का राजा झाला मानसिंह हुआ ( श्लोक ३५) जिसके पीछे क्रमशः चन्द्रसिंह, अभयराज, विजयराज, सहसमल्ल, गोपालसिंह और कर्ण हुए ( श्लोक ३५ से ४२ ). कर्ण की पुत्री बखतकुँवरी थी ( श्लोक ४३ ) जो मेवाड़ नरेश महाराणा प्रतापसिंह की पत्नी थी ( श्लोक ४४ ). उसके पुत्र का नाम था राजसिंह द्वितीय (४५ तथा आगे).
माननीय ओझा जी (उपर्युक्त, पृ० ६६३) के अनुसार 'ऊपर लिखे राजाओं में मानसिंह तो ध्रांगधरा का स्वामी था. उसके दूसरे पुत्र चन्द्रसिंह के चौथे पुत्र अभयसिंह (अक्षयराज) को बस्तर की जागीर मिली थी. उसके पुत्र विजयराज ने रणछोड़ जी के भक्त होने के कारण अपनी राजधानी लख्तर का नाम रणछोड़पुरी रक्खा- -कालीदास देवशंकर पंडया, गुजरात, राजस्थान, पृ० ४७१-७२'.
महाराणा राजसिंह द्वितीय ने राज्याभिषेक के समय स्वर्णतुलादान किया था (श्लोक ४७ ) वह उदारचित्त नरेश था. वह प्रतापसिंह का पुत्र यशस्वी था ( श्लोक ५१) और उसकी ( राजसिंह की ) पटरानी थी गुलाबकुमारी (श्लोक ५२), राजसिंह की छोटी रानी' थी फतेहकुमारी ( श्लोक ५३ ) . गुलाब कुमारी का रतलाम से सम्बन्ध था ( श्लोक ५५). राजसिंह की माता तो हरि भजन में व्यस्त रहती थी ( श्लोक ५६ ), वह झाला वंश की पुत्री बखतकुँवरी थी ( श्लोक ५७ ) राजमाता ने राजसिंह के पुण्यहेतु नगर के प्रवेश द्वार (अर्थात् देबारी द्वार के समक्ष ) राजराजेश्वर का मंदिर वापी आदि का निर्माण कराया था ( श्लोक ५६-६० ). राजराजेश्वर शंकर की पूजा हेतु ही वापी को बनवाया था. (श्लोक ६१ ) .
६२ वें श्लोक में संवत् - मास दिन तिथि आदि अंकों व अक्षरों दोनों में अंकित हैं, यथा - विक्रम संवत् १८१६ शक संवत् १६८५ माधव (वैशाख) मास की शुक्ल ( अमलतर) पक्ष की 5वीं तिथि पुष्यनक्षत्र मिथुन लग्न दिन बृहस्पतिवार आदि. इस तिथि को मंदिर की प्रतिष्ठा विधिवत् सम्पन्न हुई थी. उस समय प्रतिष्ठा का श्रेय द्विजवर 'नन्दराम ' को प्राप्त था. 'राजसिंहराज्याभिषेक २ – काव्य' में भी इस व्यक्ति का नाम अंकित है. प्रतिष्ठा के समय राजमाता ने ब्राह्मणों को गौ, सोना, हाथी, घोड़े, रथ, जेवर, आदि बहुत सी चीजें दान में दी थीं ( श्लोक ६५ ). आगे ६६-६७ श्लोकों में भी उसके दान का उल्लेख है. ऐसा करने से तथा वापी - शिवालय निर्माण व विधिवत् प्रतिष्ठा द्वारा राजमाता ने चिरस्थायी पुण्य प्राप्त किया (ब्लोक ६८, अन्तिम पंक्ति ) .
2033.
स्वर्गीय श्री व्यास के सौजन्य से प्राप्त इस प्रशस्ति का निम्न स्वरूप तथैव प्रस्तुत किया जा सकता है यद्यपि इसमें कहीं -२ अशुद्धियाँ रह गई हैं :
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१. द्रष्टव्य ओझा, उपयुक्त, पृ० ६४७. राजसिंह राज्याभिषेक काव्य में भी राजसिंह द्वितीय द्वारा सम्पन्न स्वर्णतुला का उल्लेख है. ओझा - उपयुक्त, पृ० ६४४, पादटिप्पण.
२. श्रोमा, उपर्युक्त, पृ० ६४५.
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