Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६८४ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
माता का मोह कम करने के लिये बालक दिन-रात रोया करता. एक दिन धनगिरि और समित भिक्षा के लिये जा रहे थे. उस समय शुभ लक्षण देखकर उनके गुरु ने आदेश दिया कि जो भी भिक्षा में मिले ले लेना. ये दोनों साधु भिक्षा के लिये चले तो सुनन्दा ने (जो अपने बच्चे से ऊब गयी थी) बच्चे को धनगिरि को दे दिया. उस समय बच्चे की उम्र ६ मास की थी. धनगिरि ने बच्चे को झोली में डाल लिया और लाकर गुरु को सौंप दिया. अति भारी होने के कारण गुरु ने बच्चे का नाम वज्र रख दिया और पालन-पोषण के लिये किसी गृहस्थ को दे दिया. श्राविकाओं और साध्वियों के सम्पर्क में रहने से बचपन में ही बच्चे को ग्यारह अंग कंठ हो गये. बच्चा जब तीन वर्ष का हुआ तो उसकी माता ने राजसभा में विवाद किया. माता ने बच्चे को बड़े प्रलोभन दिखाए पर बालक उधर आकृष्ट नहीं हुआ और धनगिरि के निकट आ कर उनका रजोहरण उठा लिया. जब वज्र ८ वर्ष के थे तो गुरु ने उन्हें दीक्षा दे दी. उसी कम उम्र में ही देवताओं ने उन्हें वैक्रिय लब्धि और आकाशगामिनी विद्या दे दी. वज्र स्वामी ने उज्जयिनी में भद्रगुप्त से दस पूर्व की शिक्षा ग्रहण की. कालान्तर में आर्य वज्र पाटलिपुत्र गये. वहाँ रुक्मिणी नामक एक श्रेष्ठि-कन्या ने आर्य वज्र से विवाह करना चाहा पर आर्यवच ने उसे दीक्षा दे दी. पाटलिपुत्र से प्रार्यवज्र पुरिका नगरी गये. वहाँ के बौद्ध राजा ने जिन मन्दिरों में पुष्पों का निषेध कर दिया था. अतः पर्युषणा में श्रावकों की विनतो पर आकाशगामिनी विद्या द्वारा माहेश्वरीपुरी (वाराणसी) जाकर एक माली से पुष्प एकत्र करने को कहा और स्वयं हिमवत पर जाकर श्री देवी प्रदत्त हुताशनवन से पुष्पों के विमान द्वारा पुरिका आये और जिन-शासन की प्रभावना की तथा बौद्ध राजा को भी जैन बनाया. एक दिन आर्य वज्र ने कफ के उपशमन के उद्देश्य से कान पर रखी सोंठ प्रतिक्रमण के समय भूमि पर गिर गयी. इस प्रमाद से अपनी मृत्यु निकट आयी जानकर आर्य वज्र ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा--"अब बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा. जिस दिन मूल्य वाला भोजन तुम्हें भिक्षा में मिले उससे अगले दिन सुबह ही सुभिक्ष हो जायेगा.' यह कह कर उन्होंने शिष्यों को अन्यत्र विहार करा दिया और स्वयं रथावर्त पर्वत पर जाकर अनशन करके देवलोक चले गये. यह रथावर्त विदिशा के निकट था. इसी का नाम गजाग्रपद गिरि और इन्दपद भी है. इसे राजेन्द्र सूरि ने अपने कल्पसूत्रप्रबोधिनी में स्पष्ट कर दिया है. इससे स्पष्ट है कि रथावर्त विदिशा के ही निकट था. निशीथचूणि में भी ऐसा ही लिखा है.५ 'जैन-परम्परा नो इतिहास' के लेखक ने अपनी कल्पना भिडा कर इसे मैसूर राज्य में लिख डाला और वहाँ
१. (अ) बज्रादप्यधिकं भारं शिशोरालोक्य सूरयः । जगत्प्रसिद्धां श्रीवज्र इत्याख्यां ददुरुन्मुदः ।।
-ऋषिमंडल प्रकरण, श्लोक ३४, पृष्ठ १९३-१. (आ) सो वि य भूमिपत्तो जा जाओ तत्व सूरिणा भणियं । अव्वो किं बइरमिमं जं भारिय भावमुबहइ । ४४
-उपदेशमाला सटीक, पत्र २०८. (इ) तद्भारभंगुरकरो गुरुरूचे सविस्मयः । अहो पुंरूपभूद्वमिदं धनु' शक्यते ||५||
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग १२, पृष्ठ २७४, २. माहेश्वर्या नगर्या स्वनामख्याते. ३. इन्द्रपदो नाम गाग्रपद गिरिः-'बृहत्कल्पसूत्र सभाष्य, विभाग ४, पृष्ठ १२१८-१२६१, गाथा ४८४१. ४. असौ गिरिःप्रायो दक्षिण मालवदेशीयां विदिशा (भिल्सा) समया किलासीत्. आचारांगनियुक्तौ रहावत्तनगं' इत्युल्लेखात् आचारांग नियुक्ति रचयिता श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामीति मन्यते; तर्हि वज्रस्वामिनः स्वर्गगमनात्प्रागपि स गिरिरथावर्त्तनामासीदिति संगच्छेत'.
-कल्पसूत्र प्रबोधिनी पृष्ठ २८२. ५. निशीथचूर्णि-पृष्ठ ६०.
६. पृष्ठ ३३७.
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