Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६५२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
वैदिक प्रतीक-यज्ञ इस समय निरर्थक क्रियाकलाप मात्र रह गए थे. उनकी सामाजिक उपयोगिता नगण्यप्राय थी. जिस प्रकार के यज्ञ की जीवनप्रतिष्ठा वांछित थी वह महावीर के शब्दों में इस प्रकार है : 'तप आग है, जीव ज्योतिस्थान (वेदी) है, योग जुवा है, शरीर सूखा गोबर है (कारिसंग), कर्म ईंधन है, संयम की प्रवृत्ति शान्तिपाठ है. ऐसा होम मैं करता हूँ. ऋषियों के लिये यही होम प्रशस्त है.' इस नवीन जीवन-दर्शन और नवीन सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर महावीर ने अपने अनुयायियों को संगठित किया. श्रम, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, समान महत्त्व रखता है इसलिए उसके आधार पर समाज में प्रचलित ऊँचनीच की भावना को उन्होंने त्याज्य ठहराया. उन्होंने कहा-"ण वि देहो वन्दिज्जइ, ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुत्तो२–अर्थात् देह वन्दनीय नहीं होता, कुल और जाति भी वन्दनीय नहीं होते." पारस्परिक साम्य पर आधारित महावीर का संघ गणपरम्परा पर आधारित था. बौद्ध पिटकों में बौद्धसंघ की सभा व उसकी कार्यप्रणाली का स्वरूप देखा जा सकता है. ठीक उसी तरह ज्ञप्ति, अनुश्रावण और धारणा द्वारा सम्मतिग्रहण, छन्दग्रहण आदि का निर्वाह जैनसंघ की सभाओं में भी होता था. बौद्धसंघ में स्थविर व स्थविराएँ ही भाग ले सकते थे, परन्तु जैन संघ में मुनि व आर्यिकाओं के अतिरिक्त सद्गृहस्थदम्पती भी भाग ले सकते थे. अत: इसे अधिक उदारभावना पर संगठित कहा जा सकता है. बौद्धसंघ के भारत से लुप्त हो जाने पर भी जैनसंघ के बने रहने का कारण उसका सार्वजनिक ग्राह्य रूप ही है. इस संघ की स्थापना में भगवान् महावीर के दो उद्देश्य थे. पहला-समकालीन गणतंत्रों के समक्ष श्रम की प्रतिष्ठा पर आधारित आध्यात्मिक गणराज्य का स्वरूप उपस्थित करना, तथा दूसरा श्रमण-ब्राह्मण-भेद को दूर कर, श्रम का पर्यवसान 'शम' में करने की प्रेरणा देकर मानवतावादी दृष्टिकोण का प्रसार करना. संघ को जैन लोगों ने गुणों का क्रीडासदन, परास्फूर्तिप्रदान करने वाला तथा पापहारी" कहा है. इससे प्रकट है कि जैनसमाज में भी संघभावना का महत्त्व बौद्धसमाज से कम नहीं था. प्राचीन भारत के गणतंत्रों का विकास क्षेत्रीय सुविधाओं पर आधारित था, परन्तु महावीर स्वामी द्वारा प्रचारित आध्यात्मिक गणराज्य में सम्पूर्ण भारत को ही नहीं, मानव मात्र को संगठित करने की संभावना विद्यमान थी. अतः अपने समय में यह युगान्तरकारी प्रयत्न था. समकालीन गणराज्यों ने महावीर की आध्यात्मिक गणराज्य सम्बन्धी विचारधारा को अपना लिया. लिच्छिवियों का तो यह राजपोषित धर्म बन गया. लिच्छिवियों में सबसे अधिक प्रभावशाली चेटक महावीर के मामा थे. चेटक की पुत्री चेल्लना बिम्बसार को, प्रभावती सिन्धु सौवीर के राजा उदायण को, पद्मावती चम्पा के राजा दधिवाहन को, मृगावती कौशाम्बी के शतानीक को, शिवा अवन्ती के राजा चण्डप्रद्योत को ब्याही गई थीं. इन सम्बन्धों से जैनधर्म का व्यापक प्रचार हुआ. महावीर के व्यापक प्रभाव की सूचना इस बात से मिलती है कि उनके निर्वाण के समय काशी और कौशल के १८ गणराज्यों, ६ मल्लकों और ६ लिच्छिवियों ने मिलकर प्रकाशोत्सव किया था. महावीर को मल्लराजा शस्तिपाल के प्रासाद में निर्वाण प्राप्त हुआ. इससे मल्लों पर भी उनका प्रभाव लक्षित होता है.
१. तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं ।
कम्मेहा सं जमजोग सन्ती, होमं हुणामि इसिण पसत्य । उत्तराध्ययन सूत्र १२।४३. २. दर्शनपाहुइ २७. ३. सोमप्रभाचार्य विरचित सूक्तिमुक्तावली, श्लोकसंख्या २३. ४. उपयुक्त श्लोक २२. ५. उपयुक्त श्लोक २३. ६. हिन्दूसभ्यता डा० राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दी अनुवाद पृ० २२८. ७. भगवती सूत्र ४६. ८. डा० राधाकुमुद मुकर्जी-हिन्दूसभ्यता पृ० २२६.
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