Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रत्नचन्द्र अग्रवाल अध्यक्ष, पुरातत्त्व व संग्रहालय विभाग, उदयपुर धौलपुर का चाहमान ‘चण्डमहासेन' का
संवत् ८९८ का शिलालेख
बलिन से प्रकाशित ZDMG (अंक ४०, पृ० ३८ तथा आगे) नामक जर्मन-पत्रिका में डॉ हल्श ने Einc Inschriptedes Chauhan chandamahasena von Dholpur शीर्षक लेख प्रकाशित किया था. जिसके अंतर्गत वे भरतपुर के समीपवर्ती क्षेत्र 'धौलपुर' से प्राप्त संवत् ८६८ (८४२ ईसवी) का शिलालेख प्रकाश में लाए थे. प्रस्तुत शिलालेख की २६ पंक्तियाँ 'संस्कृत' भाषा में उत्कीर्ण हैं. इसमें चौहान कुलोत्पन्न ईसुक के पुत्र महिषराम का उल्लेख कर महिषराम के पुत्र चण्डमहासेन की पर्याप्त स्तुति की है और उसके द्वारा चण्डस्वामी देवभवन की प्रतिष्ठा का समय भी प्रस्तुत किया है। प्रथम दो श्लोकों में सूर्य-स्तुति की गई है, तदुपरान्त ईसुक (श्लोक ३), उसके पुत्र महिषराम (श्लोक ४-५) का उल्लेख है. महिषराम की स्त्री 'कण्हुल्ला' ने चण्डमहासेन को जन्म दिया था और कालान्तर में अपने पति के साथ सती हो गई थी (भर्तृ समेता प्रविश्याग्नौ दिवंगता-श्लोक ६) चण्डमहासेन उदारहृदय का व्यक्ति था और उसके राज्यकाल में प्रजा प्रसन्न एवं सुखी थी, उसका राज्य न्यायपूर्ण था. वह सम्भवतः सूर्योपासक था क्योंकि शिलालेख के प्रारम्भ में ही सूर्य वन्दना की गई है और उसने 'धवलपुरी' (धौलपुर, पंक्ति १८-२०) में 'चण्डस्वामि' का भवन बनवाया था. इसकी प्रतिष्ठा संवत् ८९८ के वैशाख मास की शुक्लपक्षीय द्वितीया, दिन रविवार को सम्पन्न हुई [पंक्ति २१-२२] अर्थात् १६ अप्रैल ८४२ ई० को. प्रस्तुत लेख की १६ वीं पंक्ति में 'चम्बल' नदी के किनारे बसे [चर्मण्वती] म्लेच्छों के स्वामी को चण्डमहासेन के अधीन बताकर यह लिखा है कि 'अनिज्जित आदि समीपवर्ती ग्रामाधीश [पल्लीपतयः, पंक्ति १७] नीचा सिर किए धौलपुर [धवलपुरी] नगर में घूमते थे.' खेद है कि अनिज्जित आदि के विषय में कोई अधिक जानकारी नहीं है. अपरं च म्लेच्छ आदि की पहचान भी कठिन प्रतीत होती है. इस सम्बन्ध में डा० एच० सी० रे [डाइनस्टिक हिस्ट्री आफ नर्दन इण्डिया, कलकत्ता, भाग २, १६३६, पृ० १०५८] का यह सुझाव है कि 'म्लेच्छ' शब्द प्रारम्भिक अरबाक्रामकों [Early Arabs] का सूचक है. इसके विपरीत डा० दशरथ शर्मा [अर्ली चौहान डाइनेस्टीज, दिल्ली, पृ० १८] का विचार है कि 'म्लेच्छों' से क्षेत्र के भील-जनसमुदाय की पहचान होनी चाहिए क्योंकि 'शब्दार्थचितामणि, [भाग ३, पृ० ४४१] में इनकी गणना म्लेच्छों में की गई है-मल्लभिल्लकिराताश्च सर्वेपि म्लेच्छजातयः. डा० शर्मा के अनुसार ये आज भी चम्बल के दोनों किनारों पर बसे हैं. सम्भव है कि इस क्षेत्र के उपद्रवी लोग इन म्लेच्छों के ही वंशज हों. प्रस्तुत लेख धौलपुर क्षेत्र के पूर्व मध्ययुगीन इतिहास के लिये अधिक उपयोगी है और उपर्युक्त जर्मन पत्रिका राजस्थान के किसी भी पुस्तकालय में प्राप्य नहीं है. अतः राजस्थान के प्राचीन इतिहास के प्रेमियों एवं विद्यार्थियों के अध्ययन हेतु ZDMG के सौजन्य से उसकी प्रतिलिपि' निम्नरूपेण प्रस्तुत की जा रही है : पंक्ति १. ओं ओं नमः [1] श्रीमां त्रैलोक्यदीपः प्रणतजममाना वांछितस्योह दाता. नित्यं लोके पदार्थ प्रकटनपटवो
भानवो यस्य दीप्त ।। साध्यन्ते सत्व [...........]
१. उक्त प्रतिलिपि मेरे मित्र टा० प्रभात, प्राध्यापक हिन्दी विभाग, बम्बई ने स्थानीय विश्वविद्यालय में सुरक्षित पत्रिका से नकल करके
भेजी थी. जिसके लिये में उनका अति आभारी हूं.
.......७.
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