Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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प्रो० राजारास जैन : रइधू-साहित्य की प्रशस्तियों में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक सामग्री : ६५५ अर्थात् "हे कविवर, शयनासन, हाथी, घोड़े, ध्वजा, छत्रर, चमर, सुन्दर रानियाँ, रथ, सेना, सोना, धन-धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर, देश, ग्राम , बन्धु-बान्धव, सुन्दर सन्तान, पुत्र, भाई आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं. सौभाग्य से किसी भी प्रकार की भौतिक सामग्री की मुझे कमी नहीं है किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक चीज का अभाव सदैव खटकता रहता है और वह यह कि मेरे पास काव्यरूपी एक भी सुन्दर मणि नहीं है. इसके बिना मेरा सारा ऐश्वर्य फीकाफीका लगता है. हे काव्यरूपी रत्नों के रत्नाकर, तुम तो मेरे स्नेही बालमित्र हो, तुम्ही हमारे सच्चे पुण्य-सहायक हो. मेरे मन की इच्छा पूर्ण करनेवाले हो. इस नगर में बहुत से विद्वज्जन रहते हैं, किन्तु मुझे आप जैसा कोई भी अन्य सुकवि नहीं दिखता. अतः हे कविश्रेष्ठ, मैं अपने हृदय की गाँठ खोलकर सच-सच अपने हृदय की बात आपसे कहता हूँ कि आप एक काव्य की रचना करके मुझ पर अपनी महती कृपा कीजिये. महाकवि रइधू ने कमलसिंह संघवी की उक्त अत्यन्त विनम्र प्रार्थना स्वीकृत कर उत्तर में कहाः
सुसहाउ भव्य तुहु दिति णिरु, तुहु पुणु कमलायरु होहि थिरु । लइकरि चिंतियउ पई, भालहिं पुणहु णियय मइ । मा चित करहिं सुपसण मणा, भवि भवि लब्भहिंधण कणरयणा ।
दुल्लहु जिणधम्मु जि होइ परा, तं तुहु अायरहिं जि विणय परा ।—सम्मत्त० १, ८, १३-१६ अर्थात् 'हे भाई कमलसिंह, तुम अपनी बुद्धि को स्थिर करो. तुमने जो विचार प्रकट किये हैं वे तुम्हारे ही अनुरूप हैं. अब चिंता करने की आवश्यकता नहीं, प्रसन्नचित्त बनो (मैं इच्छानुसार तुम्हें काव्यरचना कर दूंगा) जन्म-जन्मान्तर में इसी प्रकार स्वर्ण धन-धान्य एवं रत्नों से युक्त बने रहो तथा दुर्लभता से प्राप्त इस धर्म एवं मानव-जीवन में हितकारी उच्च कार्यों को सदा करते रहो !' जब कवि की इस प्रकार की स्वीकारोक्ति सुनी तो कमलसिंह आनन्दविभोर हो उठे. उन्होंने अपने जीवन को सफल मान लिया तथा तुरन्त ही वे यह समाचार राजा डूंगरसिंह को देने के लिये राज-दरबार में पहुँचते हैं तथा शिष्टाचार प्रदर्शन के बाद निवेदन करते हैं: "हे राजन्, मैंने कुछ धर्मकार्य करने का विचार किया है, किन्तु उसे कर नहीं पा रहा हूँ, अतः प्रतिदिन मैं यही सोचता रहता हूँ कि अब वह आपकी कृपापूर्ण सहायता एवं आदेश से सम्पूर्ण करूँगा. आपका यश एवं कीति अखण्ड एवं अनन्त है. मैं तो इस पृथ्वी पर एक दरिद्र एवं असमर्थ हूँ, इस मनुष्य-पर्याय में मैं क्या कर सकता हूँ !" कमलसिंह का यह निवेदन सुनकर युवराज कीर्तिसिंह अत्यन्त पुलकित हो उठे. राजा डूंगरसिंह ने भी अत्यन्त प्रसन्नता के साथ कहा :
वियसिवि जंपिउ डूंगरराए', कमलसीह वणिवर संवाए। पुण्णु कज्जु जं तुव मणि रुच्चई, तं विरयहि साहु समुच्चई । जे पुणु अण्ण केवि सुसहायण, करहु करहु ते धम्म महायण । किंपि संक मा किज्जहु चित्तहें, संतुहउह धम्मणिमित्तहि । जहि सोरटि वीसल णिवरज्जहिं, धम्म पविट्ठउ चिरु णिरवज्जहिं । वच्छ तेयपालक्खवणिंदहि, पवर तिच्छ णिम्मिय गयदंतहि । जिह पेरोजसाहि सुपसायं, जोइणिपुरि णिवसंत श्रमायं । सारग साहु णाम विक्खायं, पविहिय जत्त धम्म अणुराए । तिह तुहुँ विरयहि एच्छु गुणायरु, लइ लइ पउरु दवु धम्मायरु । न सु जेत्तडउ विरिअछइं, सो सयलु जिवेक्कउ कयणि छई।
१. दे० सम्मत्त० १११११५. २. राजा डूंगरसिंह का पुत्र, कई स्थानों पर इसका नाम 'करनसिंह' भी उपलब्ध होता है.
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