Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
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किया और इसमें वह पूर्णतया सफल हुई. आगम में उपलब्ध संवाद से उसकी निर्भयता, उसके संयम उसके ज्ञान और उसकी समझाने की अद्भुत शक्ति का बोध होता है. बाहुबली के अभिमान को चूर-चूर करने वाली भगवान् ऋषभदेव की दो पुत्रियाँ-ब्राह्मी और सुन्दरी ही थीं, जो उनकी बहिनें थीं. उन साध्वियों द्वारा जगाई गई चेतना, और दिया गया उपदेश एक राजस्थानी कवि के शब्दों में आज भी जन-जन की जिह्वा पर बसा हुआ है और अभिमान एवं अहंभाव के नशे से मदोन्मत्त बने मानव को निरहंकारी बनने की प्रेरणा देता है.
'वीरा म्हारा गज थकी उतरो ,
गज चढ़यां केवल न होसी रे !' उत्तराध्ययन-सूत्र के चौदहवें अध्ययन में भृगु पुरोहित का वर्णन आता है. भृगु पुरोहित अपने दो पुत्रों के वैराग्य से प्रभावित होकर अपनी पत्नी के साथ दीक्षा लेने को तैयार हुआ, तो राजा ने उसके धन वैभव को अपने भंडार में लाकर जमा करने की आज्ञा दी. जब राजा की पत्नी महारानी कमलावती को इसका संकेत मिला तो उसने राजदरबार में उपस्थित होकर राजा को उपदेश दिया, उसकी धन-लिप्सा को दूर किया, मोहनिद्रा को भंग किया, और उसे प्रतिबोध देकर अपने साधनापथ का पथिक बनाया. अन्तकृत्दशांग सूत्र में मगध के सम्राट् श्रेणिक की महाकाली, सुकाली आदि दस महारानियों का वर्णन है, जिन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के उपदेश से प्रतिबोध पाकर साधना-पथ स्वीकार किया. जो महारानी राजप्रासादों में, रहकर विभिन्न प्रकार के रत्नों के हार एवं आभूषणों से अपने शरीर को विभूषित करती थीं, वे जब साधना के पथ पर गतिशील हुई तो कनकावली, रत्नावली आदि तपश्चर्या के हारों को धारण करके अपनी आत्म-ज्योति को चमकाने लगी. इस तरह आगम-साहित्य के अनेक पृष्ठों पर नारी के तप, त्याग एवं संयमनिष्ठा आदर्श तथा ज्योतिर्मय जीवन की कहानी स्वर्णाक्षरों में अंकित है. इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रमण-संस्कृति में, आगमसाहित्य में नारी का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है. नारी का यह महत्त्व उसके तप-त्याग, सहिष्णुता, दया-करुणा, वात्सल्य आदि गुणों के कारण रहा है. भगवान् महावीर ने ही नहीं, वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने भी नारी की महत्ता को स्वीकार किया है. बापू ने अंग्रेजी के 'हरिजन' पत्र में नारी की परिभाषा देते हुए उसे अहिंसा की साकार मूर्ति कहा है.-Woman is incarnation of Ahimsa. जैनाचार्यों ने भी नारी की गौरवगाथा गाई है. आचार्य जिनसेन के साहित्य में नारी के आदर्श जीवन का उज्ज्वल चित्रण है. एक जगह आचार्य ने लिखा है : "गुणवती नारी संसार में सर्व श्रेष्ठ पद को प्राप्त करती है. उसका नाम अग्रिम पंक्ति में सबसे ऊपर अंकित रहता है." अस्तु, नारी का समाज के विकास में युग-युगान्तर से सहयोग रहा है. उसकी तेजस्विता, सहिष्णुता, श्रद्धा-निष्ठा एवं तप-साधना सदा अद्भुत रही है. देश, समाज एवं धर्म की रक्षा के लिये वह अपना सर्वस्व न्योछावर करने में कभी पीछे नहीं रही. अतः नारी को नगण्य समझना और उसके महत्त्व को अस्वीकार करना, सत्य को झुठलाना है. नारी श्रद्धासंयम, समता-ममता एवं सहिष्णुता की सजीव मूर्ति है, गृहदेवी है और प्रतिपल विश्ववाटिका को अपने वात्सल्य-पीयूष से सिंचित करती रहती है. उसकी स्नेह-धारा युग-युगान्तर से प्रवहमान रही है और आज भी सतत गति से प्रबहमान है. वह क्या है और उसका क्या कर्तव्य है, इस सम्बन्ध में महाकवि जयशंकरप्रसाद का यह पद्य ही पर्याप्त है :
'नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग-पग पल में , पीयूष स्त्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में!'
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