Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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श्रीनथमल दुग्गड़ तथा श्रीगजसिंह राठौड़ श्री एल०पी० जैन और उनकी संकेतलिपि
गहुआं वर्ण, ठिंगना कद, विचारशील मेधावी मस्तक, ब्रह्मचर्य के तेज से देदीप्यमान चौड़ा ललाट, छोटे पर तेजस्वी हल्के नीले नेत्रों वाले, सात भाषाओं के शॉर्टहैण्ड के प्रसिद्ध आविष्कारक श्री एल० पी० जैन का पूरा नाम 'श्रीलादूराम पूनमचन्द खिवेसरा' था, जो ब्यावर में 'मास्टर साहब' के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध थे. धर्म में अविचल श्रद्धा रखने वाली यह त्यागमूर्ति ब्यावर में अपने जीवन के अन्तिम चालीस वर्षों से शिक्षा के क्षेत्र में एक लगन से लगी रही एवं अपनी निष्काम सेवा तथा त्याग के बल पर सैकड़ों विद्यार्थियों के हृदयों में पथ-प्रदर्शक आदरणीय गुरु के रूप में पूज्य बन गई. प्रातः चार बजे वे उठ जाते थे. एक घंटा ध्यान एवं स्वाध्याय में लगाते. ठीक पाँच बजे प्रार्थना और उसके बाद मील डेढ़ मील टहलने एवं अन्य शारीरिक कार्य से निवृत्ति के पश्चात् मुनिदर्शन का उनका निश्चित कार्यक्रम जीवन भर निर्द्वन्द्व गति से चलता रहा. सन् १९३६ तक उनका अधिकांश समय धार्मिक शिक्षा एवं व्यवस्था में बीता, पर इसके बाद अधिकांश समय शास्त्रपठन, स्वाध्याय एवं आत्मचिन्तन-मनन में, एवं थोड़ा जैन संकेतलिपि के विकास एवं प्रचार में लगता था. वे 'धर्म-शिक्षा,' 'धर्म-शास्त्र' एवं 'संकेतलिपि' इन तीन विषयों पर विस्तार से विचारविनियम करना पसन्द करते थे. अन्य किसी प्रश्न का वे उत्तर देना पसन्द नहीं करते थे. शास्त्रस्वाध्याय की ओर उनकी गहरी रुचि थी. कई शास्त्र इन्होंने कण्ठस्थ कर लिये थे. उनका जन्म बैंगलोर में हुआ और शिक्षाप्राप्ति के पश्चात् वे पंत्रिक व्यवसाय में लग गए. मगर परिस्थितियों ने उन्हें शीघ्र ही व्यवसाय-विमुख बना दिया. ब्यावर में सन्तसमागम बराबर बना रहते देखकर और शास्त्र अध्ययन और स्वाध्याय के लिये उपयुक्त स्थान समझ कर सन् १९२१ के प्रारम्भ में बैंगलोर से अपना समस्त कारोबार समेट कर वे ब्यावर आ गये. बैंगलोर में रहते समय ही उनकी इच्छा जैन श्रमणदीक्षा लेने की हो गई थी. पर विधि का विधान कुछ और ही था. ब्यावर नगर और आसपास के स्थानों में धार्मिक शिक्षण की कमी उन्होंने देखी, साथ ही लोगों की जिज्ञासा भी देखी. इससे उनको कुछ स्फूति मिली. आये थे केवल अपना हित करने, पर करने लगे दूसरों के भी ज्ञानलाभ की बात. धुन के पक्के थे ही. तुरन्त अपना मार्ग निश्चित किया और एक 'जैन-पाठशाला' की स्थापना कर दी. प्रौढ लोगों को धार्मिक शिक्षण देने के निमित्त एक रात्रिपाठशाला भी चलाने लगे. फिर तो एक छात्रालय भी स्थापित हो गया और शिक्षा की सुन्दर व्यवस्था हो गई. शनैः-शन: धार्मिक ज्ञान के लिये और प्रमुख रूप से उच्च धार्मिक ज्ञान के लिये संस्कृत भाषा का ज्ञान जरूरी समझा गया और इस हेतु जो छः माह का पाठ्यक्रम रखा गया था, उसे बदला गया और आठ वर्ष का किया गया. इसके संचालन के लिये एक अलग संस्था का भी 'श्री जैन-बीराश्रम' के नाम से निर्माण किया गया. इस में संस्कृत पाली एवं अर्द्धमागधी भाषा के ग्रन्थों के तथा दर्शन आदि विषयों के अध्यापन का प्रबन्ध किया गया.
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