Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय जिस सूक्त में यह ऋचा आई है, उसकी प्रस्तावना में निरुक्त के जो 'मुद्गलस्य दृप्ता गावः' आदि श्लोक उद्धृत किये गये हैं, उनके अनुसार मुद्गल ऋषि की गायों को चोर ले गये थे. उन्हें लौटाने के लिये ऋषि ने केशी वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचनमात्र से वे गौएँ आगे को न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ी. प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायणाचार्य ने पहले तो वृषभ तथा केशी का वाच्यार्थ पृथक् बतलाया है, किन्तु फिर उन्होंने प्रकारान्तर से कहा है : "अथवा अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टकेशो वृषभोऽवावचीत् भ्रशमशब्दयत्" इत्यादि. सायण के इस अर्थ को तथा निरुक्त के उक्त कथाप्रसंग को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत गाथा का निम्न अर्थ प्रतीत होता है : "मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ, जो शत्रुओं का विनाश करने के लिये नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौएँ (इन्द्रियां) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौद्गलानी (मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की ओर लौट पड़ी." तात्पर्य यह कि ऋषि की जो इन्द्रियाँ पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गईं. वृषभदेव और वैदिक अग्निदेव-अग्निदेव की स्तुति में वैदिक सूत्रों में जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है, उनके अध्ययन से स्पष्ट है कि यह अग्निदेव भौतिक अग्नि न होकर आदि प्रजापति वृषभदेव ही हैं-जातवेदस् [जन्मतःज्ञानसम्पन्न], रत्नधरक्त [दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नों को धारण करनेवाला] विश्ववेदस् [विश्वतत्त्वों का ज्ञाता] मोक्ष नेता, ऋत्विज् [धर्मस्थापक], होता, हय, यज्ञ, सत्य यशवल इत्यादि. वैदिक व्याख्याकारों ने भी लौकिक भ्रान्तियों का निग्रह करने के लिये स्थल-स्थल पर इस मत का समर्थन करते हुए लिखा है कि अग्निदेव वही है जिसकी उपासना मरुद्गण रुद्र संज्ञा से करते हैं. रुद्र, शर्व, पशुपति, उग्र, अशनि, भव, महादेव, ईशान, कुमार-रुद्र के ये नौ नाम अग्निदेव के ही विशेषण हैं. अग्निदेव ही सूर्य है.४ परमविष्णु ही देवों [आर्यगण] की अग्नि है.५ इस मत की सर्वाधिक पुष्टि अथर्ववेद के ऋषभसूक्त से होती है, जिसमें ऋषभ भगवान् की अनेक विशेषणों द्वारा स्तुति करते हुए उन्हें जातवेदस् [अग्नि] विशेषण से भी विशिष्ट किया गया है.६ उपर्युक्त विशेषणों तथा समस्त प्राचीन श्रुतियों के आधार पर स्तुत्य अग्नि शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए ब्राह्मण ऋषियों ने यह व्यक्त किया है कि उपास्य देवों के अग्र में उत्पन्न होने के कारण वह अग्रि अथवा अग्नि संज्ञा से प्रसिद्ध हुए." इन लेखों के प्रकाश में केवल यह तथ्य ही स्पष्ट नहीं होता कि वृषभदेव का ही अपर नाम अग्निदेव रहा, अपितु यह भी सिद्ध है कि उपास्य देव के अर्थ में प्रयुक्त 'अग्नि' शब्द संस्कृत का न होकर अनि का लोकव्यवहृत प्राकृत अथवा
१. देखो डा० हीरालाल जैन का "श्रादि तीर्थकर की प्राचीनता तथा उनके धर्म की विशेषता" शीर्षक लेख (अहिंसावाणी। वर्ष ७, अंक
१-२,१६५७)। १२. ऋग्वेद, ११, ११२, अथर्व०६, ४, ३ ऋग्वेद, १, १८६, १.
'यो वै रुद्रःसोऽशिनः-शतपथब्राह्मण ५, २, ४,१३. ३. (अ) 'तान्येतानि अष्टौ रुद्रः शर्वः पशुपतिः उग्रः अशनिः भवः महादेवः ईषानः अग्निरूपाणि कुमारो नवम्' वही. ६,१,३,१८.
(आ) 'एतानि वै तेषामग्नीनां नामानि यद्भुवपतिः भुवनपतिभूतानां पतिः' वही, १, ३, ३, १६.. ४. अग्निर्वार्थः. वहीं, २, ५, १, ४. ५. 'अग्नि देवानाम् भवोको विष्णुपरम्' कौतस्य ब्राह्मण, ७,१. ६. अथर्व, 8, ४, ३,. ७. (अ) सयदस्य सर्वस्याग्रमस्सृज्यत तस्मादगिरग्रिहं वै तमग्निरित्याचक्षते परोक्षय-शतपथ ब्राह्मण, ६, १, १, ११.
(आ) 'यद्वा एनमेतदने देवानां अजनयत् तस्मादग्निराग्रतवै नामैतदद्यदगिरिति.' वही २, २, ४, २..
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